संदेश
ऊ अकेले नइखे: विष्णुदेव तिवारी
- लिंक पाएं
- ईमेल
- दूसरे ऐप

विष्णुदेव तिवारी के एगो भोजपुरी कविता: ऊ अकेले नइखे ऊ अकेले नइखे ओकरा संगे बा कहिए से तहियावल एगो बारूद एगो लुतुकी एगो विचार एगो विचारधारा कि अपना के देखावे के बा कि दोसरा के बतावे के बा कहाए के बा सिरमौर धरती के आकाश के हवा-बतास के। ओकरा बतावे के बा कि ग्रह-नखत ओकरे मरजी से उगेले बिसवेले जब ऊ दाँत गड़ावेला त' बादर बरिसेले नोह गड़ावेला त' समुंदर तेरह चँगुरा धँसेले। ओकरा बहुत कुछ बतावेके बा लोगन के समुझावे के बा कि जवना घरी दुनिया के मए जनमतुआ रोवत-रोवत साँसी टाँग लीहें ऊ फोंफी बजाई खून पीही गीत गाई नाची। बाकिर तब ओकरा गूँग खुशी के गवाह के बाँची? विष्णुदेव तिवारी, बक्सर
भोजपुरी कहानी का आधुनिक काल (1990 के बाद से शुरु ...): एक अंश की झाँकी - विष्णुदेव तिवारी
- लिंक पाएं
- ईमेल
- दूसरे ऐप

साहित्य में काल को किसी सीमा में बाँधना वैज्ञानिक कभी नहीं रहा क्योंकि किसी भी काल में कोई भी प्रवृत्ति या चित्तवृत्ति अचानक नहीं उत्पन्न होती है अथवा विलुप्त होती है। अचानक भाव उत्पन्न होते हैं, भावनायें समुद्भूत होती हैं। जब काल विशेष में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि परिवर्तन बड़े स्पष्ट हो जाते हैं और उनसे प्रभावित होकर साहित्य भी तद्नुसार अपना चोला बदल लेता है, तो कहा जाता है-युग परिवर्तन हुआ। कभी-कभी साहित्य दूर के प्रभावों से भी अपना रूप बदलता है, फिर भी, वैसा परिवर्तन ही दीर्घजीवी होता है, जो स्वयं साहित्य विशेष की अपनी आंतरिक सर्जनात्मकता से घटित होता है, बाह्य उद्दीपकों से नहीं। 1990 के बाद विश्व स्तर पर झकझोर देने वाली तमाम घटनायें हुईं, जिन्होंने मानव जाति के सारे वितान अस्त-व्यस्त कर दिए। मेहनतकशों के लिए आशादीप बना सोवियत रूस बुझ गया, बिखर गया और पूँजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका के शोषक-स्वप्न निखर गए। नव उदारवाद ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पंख लगा दिए और अर्थतंत्र विदेशी पूँजी से उड़ने लगा। किन्तु इस उड़ान ने बाजार के सारे बंद वातायन खोल दिए। पूँजी के अबाध
अइसे काहें होत बा?: विष्णुदेव तिवारी
- लिंक पाएं
- ईमेल
- दूसरे ऐप
ई अच्छा बा कि टच स्क्रीन वाला मोबाइल में आपन थोबर लॉक खुलते एक क्षण ख़ातिर झलक जाता आ अपना के बिना झँकलहूँ ई अँका जाता कि उमिर के बघनोह अब ओकरा के अतना खरोंच चुकल बा कि ऊ गिनाई ना एक दिन गोड़, चाहे हाथ, चाहे जीभ, चाहे मुँह अचके अँइठा जाई आ तब… का-का बिला जाई केकरा पता बा? केकरो नइखे पता कुछुओ तबो लपेटाइल रहत बा मन ओही डूबा रसरी में आजुओ जइसे महतारी के संगे ओकरा गरभ में बन्हाइल रहत रहे कबो आँख बन कइले। अतना कुछ हो हवा गइल पुरुब के आदित पच्छिम सरकले तबो... लरकत बा मन आजुओ अहकत बा केहू से आपन कहाए ख़ातिर ई नीके तरी जनला के बादो कि आपन… अइसे काहें होत बा? बेर-बेर उहे काहें मन परत बा जे बेर-बेर आत्मा के तुरलस! जे कबो टूटे ना जरे ना सूखे ना गरे ना? विष्णुदेव तिवारी, बक्सर, बिहार