भोजपुरी कहानी का आधुनिक काल (1990 के बाद से शुरु ...): एक अंश की झाँकी - विष्णुदेव तिवारी

साहित्य में काल को किसी सीमा में बाँधना वैज्ञानिक कभी नहीं रहा क्योंकि किसी भी काल में कोई भी प्रवृत्ति या चित्तवृत्ति अचानक नहीं उत्पन्न होती है अथवा विलुप्त होती है। अचानक भाव उत्पन्न होते हैं, भावनायें समुद्भूत होती हैं। जब काल विशेष में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि परिवर्तन बड़े स्पष्ट हो जाते हैं और उनसे प्रभावित होकर साहित्य भी तद्नुसार अपना चोला बदल लेता है, तो कहा जाता है-युग परिवर्तन हुआ। कभी-कभी साहित्य दूर के प्रभावों से भी अपना रूप बदलता है, फिर भी, वैसा परिवर्तन ही दीर्घजीवी होता है, जो स्वयं साहित्य विशेष की अपनी आंतरिक सर्जनात्मकता से घटित होता है, बाह्य उद्दीपकों से नहीं।
1990 के बाद विश्व स्तर पर झकझोर देने वाली तमाम घटनायें हुईं, जिन्होंने मानव जाति के सारे वितान अस्त-व्यस्त कर दिए। मेहनतकशों के लिए आशादीप बना सोवियत रूस बुझ गया, बिखर गया और पूँजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका के शोषक-स्वप्न निखर गए। नव उदारवाद ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पंख लगा दिए और अर्थतंत्र विदेशी पूँजी से उड़ने लगा। किन्तु इस उड़ान ने बाजार के सारे बंद वातायन खोल दिए। पूँजी के अबाध संचरण ने आम जन को आँधी के पत्ते-सा डोलायमान कर दिया। कुल मिलाकर, विश्व की आर्थिक शक्तियों ने नव साम्राज्यवाद के चपल चरणों से धरा को आक्रांत करना शुरू कर दिया, जो बदस्तूर आज भी जारी है। भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन हुआ और महँगाई बढ़ने लगी। भारत में, सांप्रदायिकता का एक बार फिर उबाल उठा और बाबरी मस्ज़िद के गिरते ही दंगे-फ़साद शुरू हो गए। इन दंगों ने भारत ही नहीं, इसके पड़ोसी देशों पाक़िस्तान, बंगलादेश आदि तक को अपने आगोश में ले लिया। साहित्य इन दु:खद अनुभवों से अपने आप को अछूता कैसे रख पाता! यहाँ यह अभिनव कथ्य-शिल्प में अभिव्यक्त हुआ। न केवल हिन्दी अथवा भारत की अन्य भाषाओं का साहित्य अपितु विश्व साहित्य तक इससे प्रभावित हुआ। बंगलादेश की विश्व प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन का उपन्यास 'लज्जा' बाबरी मस्ज़िद विध्वंस के बाद के ही मार्मिक कथाक्रमों का दस्तावेज़ है।
भोजपुरी कहानीकार मनोज भावुक ने बाबरी मस्ज़िद विध्वंस को प्रेम के लिए तुषारापात समझा पर प्रेम को फ्रीज नहीं होने दिया। मनोज मूलत: कवि-गीतकार हैं पर आधुनिक विन्यास से सजी उनकी प्रेम कहानियाँ चमत्कृत करती हैं। उनकी कहानी 'कहानी के प्लाट' में अदेहज प्रेम का बड़े ही रोमैन्टिक अंदाज में चित्रण हुआ है। हिन्दू लड़के राहुल और मुस्लिम लड़की शबाना का यह प्रेम वैवाहिक बंधन में नही बँध पाता। शबाना राहुल के घर में श्वेता नाम की हिन्दू लड़की के रूप में जानी जाती है और राहुल शबाना के घर में मुस्लिम लड़के मुहम्मद सरफराज खाँ के रूप में। यद्यपि राहुल के घर में शबाना का कभी आगमन नहीं होता और उनके बीच के प्रेम का पता शबाना की एक चिट्ठी से होता है, जिसे राहुल की भाभी संयोगवश राहुल के बक्से से प्राप्त कर लेती हैं। यह चिट्ठी शबाना ने राहुल को श्वेता के नाम से लिखी होती है। शबाना की माँ किसी भी क़ीमत पर हिन्दू लड़के से अपनी लड़की का विवाह नहीं कर सकतीं। बाबरी मस्ज़िद के ढहने के बाद हिन्दुओं के प्रति उनकी नफ़रत अमाप है। राहुल भी अपनी माँ को एक मुस्लिम बहू लाकर उसके सुखद स्वप्नों को स्वाहा करना नहीं चाहता। वह नहीं चाहता कि उसकी माँ वृद्धावस्था में स्वयं से और रूढ़िवादी समाज से टकराते हुए आत्मिक कष्ट भोगे। पर प्रेम तो हुआ और मन-प्राण से हुआ। अंत में, दोनों प्राणी अपने-अपने हृदयों में प्रेम की अखंड लौ जलाए ज़ुदा हो जाते हैं।
इस कहानी के अंत में मनोज ने फैंट्सी का टच देने की सफल चेष्टा की है। इनकी एक अन्य प्रसिद्ध प्रेम कहानी है 'तेल नेहिया के' जो सर्वप्रथम भोजपुरी पत्रिका 'पाती' के मार्च-जून 1999 वाले अंक में प्रकाशित हुई थी।
बाबरी मस्ज़िद के पतन के बाद भी हिन्दू-मुस्लिम दोस्ती को आदर्शवादी नज़र से देखने वाले संत स्वभाव के साहित्यकार कन्हैया पाण्डेय ने भी 'मिरजई' ('बटोहिया' का जुलाई 1995- जून 1996 अंक) नाम से एक बड़ी सुंदर कहानी लिखी है। यह कहानी देवी काका और उस्मान मियाँ नामक दो ज़िगरी दोस्तों की कहानी है, जिसमें शक, सन्देह और भय के बाद देवी पंडित उस्मान मियाँ के घर से अपनी मिरजई लेकर सकुशल अपने घर को प्रस्थान करते हैं। कहानी सरल भाषा और शिल्प में महान संदेश देती है। कन्हैया पाण्डेय का 'मिरजई' (2002) नाम से कहानी संग्रह भी आ चुका है।
हिन्दी और भोजपुरी दोनों में समान रूप से सक्रिय सुरेश काँटक इस काल के अतिशय सफल कहानीकार हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के कथ्य जीवन के यथार्थ से चुने हैं। उनकी कहानियों में उनकी साम्यवादी दृष्टि स्पष्ट दीखती है। इनकी कई कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, जैसे- 'नदी के धार', 'भरोसा', 'मोरचा', 'चकलेट', 'बबुआ', 'एक सइ तिरपन बरिस के आदमी', 'सुगी कहली सुगा से' आदि। भोजपुरी कहानियों के इनके संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।
इनकी कहानी 'नदी के धार' (1997) उस भ्रष्ट नृशंसता का बयान है, जिसमें लगता है शक्ति ही समाज को नियमित करती है। 'बबुआ' (2005) माँ के नेह, तपस्या और निश्च्छल व्यवहार के बरक्स बेटे के कृतघ्न उपसंहार की मार्मिक कथा है। इस कहानी को कहानीकार ने किसी विचारधारा से बँधने नहीं दिया है। वह जीवन के साथ चलता है और अनुभूत को व्यक्त करता है। 'एक सइ तिरपन बरिस के आदमी' (2000) सुच्चा फैंट्सी कथा है। यह कहानी आने वाले कल के बारे में सचेत करते हुए बताती है कि विज्ञान के दुरुपयोग से संचालित बाजार जब आदमी की संवेदना पर सवार हो जाएगा तो दारुण अनर्थ हो जाएगा। प्रेम, लोकलाज, सहकार सभी विलुप्त हो जाएँगे, यंत्र निर्मित संसार सेक्स और पैसे की बहुलता से पीड़ित दु:ख की सर्जना करता फिरेगा और बलवान लोग, समूह अथवा देश-कमज़ोर लोग, वर्ग या देश के हक को छीनकर उन्हें संस्कृति और संस्कार से विहीन कर देंगे। नाटकीयता के साथ संवाद शैली में कुँवर सिंह के बलिदान की कही गई कहानी है-'सुगी कहली सुगा से' (1999)। यह इतिहास के साथ इतिहास बोध की भी कथा है। इसी तरह काँटक की एक अन्य प्रसिद्ध कहानी है- 'अँजोरिया के पीछे'। यह कहानी चुनाव कराने के लिए नियुक्त कर्मचारियों के अपार कष्ट की व्यंग्य कथा है।
काँटक अपनी कुछ कहानियों में, अपने पात्रों से कुछ करवाने की अपेक्षा सोचवाने और बोलवाने का काम ज़्यादा करवाते हैं। कभी-कभी पात्रों के स्वतंत्र कार्य-व्यापार पर लेखकीय दबाब भी झलक जाता है।
बाबरी मस्ज़िद का पतन 06 दिसंबर सन् 1992 को हुआ था, किन्तु इसके बीज इतिहास में ही बोए जा चुके थे। इधर, जब वी पी सिंह की सरकार ने 'अदर बैकवर्ड क्लास' के लिए भारत की नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी (07 अगस्त 1990) तो 10 अगस्त से भारत विरोध प्रदर्शन की अग्नि में झुलस उठा। 13 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की सिफारिशों को अमल में लाने की अधिसूचना ज़ारी कर दी गई। सरकार के अपने भीतर और अन्य सहयोगियों के साथ भी सिफ़ारिशों को लागू करने के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद थे, पर प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने किसी की एक न सुनी। अंतत: बाहर और भीतर के विरोध का नतीज़ा यह निकला कि उन्हें 07 नवंबर 1990 को प्रधानमंत्री के पद से स्तीफ़ा देना पड़ा।
विरोध की दशा ऐसी थी कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के देशबंधु महाविद्यालय के तृतीय वर्ष के छात्र राजीव गोस्वामी ने खुद को अग्नि में झोंक दिया था। यह वह समय था, जब देश स्पष्टत: मंडल के पक्ष और विपक्ष के दो प्रतिद्वंद्वी शिविरों में बँट गया था। अपने ही देश के, अपने ही लोगों का आपस में इस तरह बँटना- एक देश, एक राष्ट्र के रूप में आधुनिक भारत के लिए अबतक का सबसे बड़ा आघात था। हिन्दुओं की आपसी बंधुता को इससे पहले इतना ख़तरा कभी नहीं पहुँचा था। परस्पर अविश्वास की स्थूल-सूक्ष्म भावनायें जो उस काल में पनपी थीं, आज भी कहीं न कहीं, कभी न कभी, प्रकट हो जाती हैं और शायद ये तभी समाप्त हों जब संविधान के अनुसार देश के हर व्यक्ति, हर वर्ग अथवा समूह को उसका उचित हक मिल जाय। मंडल के समानान्तर कमंडल की राजनीति शुरू हुई और बाबरी मस्ज़िद ढह गई।
ओबीसी आरक्षण अदर बैकवर्ड क्लास के लिए सुकून और सवर्णोंं के लिए त्रासदी के रूप में आया। इसने देश की सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक, यांत्रिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक- सभी क्षेत्रों में असीम परिवर्तन इस तरह किए कि भारत की स्वतंत्रता के बाद का इतिहास मंडल पूर्व और मंडल पश्चात के दो खानों में बँट गया। इन सब का साहित्य पर प्रभाव पड़ना ही था।
1990 के बाद के साहित्य के कथ्य, तथ्य, शिल्प और शैली में भी स्पष्ट परिवर्तन दिखे। सजग और देशकाल तथा परिस्थिति से वाक़िफ़ कहानीकारों ने अपने अनुभव, बोध, दृष्टि और कलात्मक ज्ञान के अनुरूप युग सत्य से मारवेलस सृजन किए, वहीं सामान्य और अपरिपक्व रचनायें भी सामने आईं।
कुमार विरल की 'बिहार बंद' और कृष्णानंद कृष्ण की 'गाँव बहुते गरम बा' इस दृष्टि से महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं। 'बिहार बंद' एक वर्णनात्मक कहानी है, जो आदर्श में समाप्त होती है। 'गाँव बहुते गरम बा' (1993) में यथार्थ का चित्रण भी है, उद्घाटन भी है- "ओह घरी पूरा देश मंडल कमीशन के हवन कुंड में धधकत रहे। बस जरावल जात रहे। लरिका सब आग लगा आत्मदाह करत रहन स। रोजे जुलूस निकलत रहे। ओह घरी सउँसे देस धुआँ के चिराइन गंध से भर गइल रहे। ओकरा इयाद परत बा एह मुद्दा प ओकर एगो वामपंथी दोस्त एक दिन टेबुल पर मुक्का मारत कहले रहन- 'आरक्षण सत्ताइस प्रतिशत ना सत्तासी प्रतिशत होखे के चाहीं।' मित्र के बात सुन के ऊ अवाक रह गइल रहे। मित्र के असली चेहरा सामने आ गइल रहे। ओकर मित्र बात आगे बढ़ावत कहले रहन- 'जब ले सामंतवाद खतम ना होई, छोटका लोगन के तरक्की ना होई।' ऊ अपना इयार से पुछले रहे- 'का कुछ जात के लोग सामंती मिजाज के होला? अगर ई साँच बा त अपना इहाँ जे नर-संहार होता ओह में अमानुषिक काम करे वाला लोग जादे सत्तासिए प्रतिशत के काहें होता? एकर का कारन हो सकेला?' एह पर ओकर मीत राम चुप्पी साध ले ले रहन। ऊ चुपचाप उठ के बहरी चल आइल रहे। आज जब भाग के ऊ गाँवे आइल बा, रामलड्डू के दोकानों में उहे चिराइन गंध वाला धुआँ भरल बा आ ओकर पीछा कर रहल बा।'
कृष्णानंद की इस कहानी में राजनीति के दाँव में चित्त होते गाँव-शहर के मनस लोक की यात्रा हो जाती है। सम्बन्धों के टूटने से हर आदमी दु:खी है, पर अपने पक्ष को निबाहना है, अत: बाहर से वह दिखाना भी है, जो वह नहीं है। और, ऊपर से राजनीति के अपने कुचक्र हैं। कहानी का नायक जब गाँव से शहर के लिए प्रस्थान कर रहा होता है, तो वह हँसते-हँसते रामलड्डू नाम के चायवाले से कहता है 'साव जी, अतना छोट-छोट बातन के गिरह बान्ह के आदमी रखी त जीयल मोहाल हो जाई।' तब रामलड्डू जो बात कहता है वह टीस उत्पन्न करता है, किन्तु वही सत्य है। रामलड्डू कहता है- 'रउआ अपना टाइम के बात भुला दीं। गाँव आज-काल्ह बहुते गरम बा।'
(विष्णुदेव तिवारी जी के फेसबुक से साभार)
विष्णुदेव तिवारी, बक्सर

टिप्पणियाँ

  1. विष्णुदेव तिवारी जी हिन्दी औऱ भोजपुरी साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं! माँ सरस्वती की असीम कृपा है, इनके लेखन में इनका व्यक्तित्व झलकता है।अपनी बेबाक अभिव्यक्ति एवं तटस्थ आलोचना से लोगों का दिल जीत लेने की अद्भुत कला के जादूगर इनको कहना चाहिए।

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  2. आपकी सहृदयता और विद्वता के प्रति हृदय से आभारी हूँ। अपने साहित्यिक कार्य में दत्तचित रहूँ- इसमें- आपके ये शब्द मुझे अनवरत प्रेरित और उत्साहित करते रहेंगे।

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