भोजपुरी रतन भारतेंदु हरिश्चन्द के भोजपुरी साहित्य साधना - डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'



आज भोजपुरी जगत के अनमोल रतन आधुनिक हिन्दी भाषा आ साहित्य के जनक आ भारतीय नवजागरण के अग्रदूत देशभक्त पत्रकार भारतेंदु हरिश्चन्द के जयंती (०९ सितंबर) ह। अपना चउंतीस बरिस का बहुत छोट जीवन काल में हरिश्चन्द जी कवि, नाटककार, ब्यंग्यकार, गद्यकार, पत्रकार आ प्रभावी बक्ता के रूप में एतना ना उत्तमोत्तम काम कइलें कि भोजपुरी भाषा के ग्यान-गढ़ आ भारत के सांस्कृतिक राजधानी कासी के बिद्वत-मंडली उनका के सन् १८८० ई में ' भारतेंदु ' मतलब भारत के इन्दु (चन्द्रमा) के उपाधि से सम्मानित कइल। देश, काल आ परिस्थिति का माँग के मुताबिक ऊ सउँसे देश के एगो भाषा आ लिपिसूत्र में बान्हे खातिर सन् १८७३ ई. में खड़ी बोली के 'हिन्दी' नाम देके ओकरा बिकास आ प्रचार खातिर जोरदार ढंग से लिखल आ बोलल प्रारंभ कइलें। खड़ी बोली हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार आ साहित्य के लेखन खातिर ऊ साहित्यकार लोग के एगो बहुते बड़ जमात खड़ा कइलें। ओह तमाम साहित्यकार लोग के 'भारतेंदु मंडल' साहित्यकार कहल जाला आ उनका अवदान के मूल्यांकन करत आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहासकार लोग सन् १८५७ ई. से सन् १९०० ई. तक का काल के 'भारतेंदु जुग' कहेला।

भारतेंदु हरिश्चंद समय का माँग के मुताबिक भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के तेज धार देवे खातिर खड़ी बोली हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपन बहुआयामी प्रतिभा के भलहीं नेवछावर कर दिहलें। बाकिर उनका भीतर के मातृभाषाई अस्मिताबोध उनका बेर-बेर उद्बेगे आ उनका कलम पर भोजपुरी चढ़े लागे। जवना के चर्चा भोजपुरी साहित्य जगत प्रायः ना करे आ उनका के आपन पुरखा लेखक ना माने। इहँवा हमरा सरधाजोग मोती बी. ए. का भोजपुरी कविता के दूगो डांड़ी मन पड़ जात बा-

'अपने चीजुइया के जे ही नाहीं बूझी,
ओकरा के दुनिया में केहू नाहीं पूछी।
अपने चीजुइया से अपने बेगाना,
चारो ओरिया ढ़ूँढ़ अइबऽ, पइबऽ ना ठेकाना।'

आज भोजपुरिया लोग ऊपरे ऊपर टकटोरता। एंड़ी अलगाके अपने के बड़ बतावे आ मनवावे में फेनिआइल बा। ई जमात इहे साबित करे में लागल बा कि भोजपुरी के हमहीं आदि, मध्य आ आखिरी हईं। भले काल्ह के केहू कुशल आ निष्पक्ष इतिहासकार सही मूल्यांकन करत उनका के भोजपुरी साहित्य का इतिहास के आदि आदि में गिनती कर लेवे। खैर, इहाँ त हमरा बिना बिसयांतर भइले भारतेंदु हरिश्चंद का मातृभाषा भोजपुरी प्रेम, पद-गद लेखन आ उनका द्वारा अपना मंडल के कवि -गजलो रामकृष्ण वर्मा बलवीर, तेग अली तेग आदि के प्रेरित करके भोजपुरी में साहित्य गढ़वावे का तथ्य पर बात करेके बा।

भारतेन्दु हरिश्चंद के पुरखा आ परिवार अंगरेजन के भक्त रहे। पहिले भारतेंदुओ अंगरेजन के बराई करत कुछ लेखन कइलें। काहे कि पारिवारिक परिवेस ओही तरह के रहे। ई चीज उनका कुछ रचनन में झलकी। बाकिर धीरे-धीरे उनका भीतर राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रीयता आ निजभाषा प्रेम प्रबल होत गइल। अइसे ऊ पाँच बरिस के छोट उमिर में अंगरेजन के बानासुर आ स्वाधीनता आंदोलन का सेनानियन के भगवान बतावत भोजपुरी में तुकबंदी काल रहस-

'लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए, सिरी अनिरूद्ध सुजान।
बानासुर का सेन के हनन लागे भगवान। ।‌'

देश के गद्दार आ अंगरेजी सरकार के भेदिया भारतीय लोग के जयचंद कहके संबोधित करत ऊ भोजपुरी में गेय पद रचलें-

'काहे तूं चउका लगाए जयचँदवा।
अपने सवारथ में भूलि लुभले,
काहे चोटी कटवा बुलाए जयचँदवा।।
अपने हाथ से अपने कुल के
काहे तें जुड़वा कटाए जयचँदवा।।
फूट के फल सब भारत में बोए
बैरी के राह खुलाए जयचँदवा।।
अउर नासि तें आपो बिलइले
निज मुँह कजरी पोताए जयचँदवा।।'

अंगरेजन का राज में होत भारत आ भारतीय जन का दुरदसा के बिसय बना के सन् १८७६ ई. भा सन् १८८० ई. में लिखल अपना 'भारत दुरदसा' नाटक में लिखल भोजपुरी गेय रचना के जरिए भारत का धन के लूट के बिदेस ले जाए का प्रसंग से भारतीय जनमानस के परिचित करवलें आ एकरा बिरोध में उठ खड़ा होखे खातिर प्रेरित कइलें -

'रोवहु सब मिलि के आवहु भारत भाई।
हा! हा! भारत दुरदसा ना देखी जाई।।'

सउँसे रचना भोजपुरी में बा। जवना का आखिर में लिखलें -

'अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी,
पै धन बिदेस चलि जात, इहे अति ख्वारी।
ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी,
दिन दिन दूनो दुख ईस देत हा हारी।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई,
हा! हा! भारत दुरदसा ना देखी जाई।।'

अइसहीं बिदेसी आक्रांता द्वारा सोमनाथ मंदिर तूड़े आ लूटे का प्रसंग में लिखल कविता 'गौरा करे पुकार' 'कजरी मोहि नंद के कंहाई बिलमाई ए हरी', बलिया के कलक्टर राबर्टस का बिदाई के अवसर पर लिखल बिदाई गीत - 'सुनलीं, जे हमनीं से अतना परेम कई, लगले इहाँ के अब एजनी से जाइबि।' नया कलक्टर मिस्टर रोज के अगुवानी में लिखल कविता- 'हमनी के बलिया दुआब के रहनिहार' आदि में उनका ब्यंग, देशप्रेम का संगे मातृभाषा भोजपुरी प्रेम भी साफ साफ झलकऽता।

देवनागरी लिपि के आविष्कार कइल देवनगरी कासी का ब्राह्मन समाज के ह। जेकर उदेस रहे हर भारतीय भाषा के अरबी-फारसी आ उर्दू लिपि के जगे अपना लिपि के स्वीकारिता बढ़ावल। तबे नू भारतेंदु हरिश्चंद से प्रभावित होके कासीवासी भोजपुरी के नाटककार पं. रविदत्त शुक्ल सन् १८८४ ई. 'देवाक्षरचरित' आ पं. राम गरिब चौबे सन् १९८५ ई. में 'नागरी बिलाप' लिखलें आ जनता के बीच मंचन करववलें। कासी का क्वींस कवलेज, जहँवा खुद भारतेंदु हरिश्चंद पढ़ल लहरें, के तीन भोजपुरी भाषी बिद्यार्थी बाबू श्यामसुंदर दास, पं. राम नारायण मिसिर आ शिव कुमार सिंह मिल के सन् १८९३ ई. में 'नागरी प्रचारिणी सभा' के अस्थापना कइलें। जवना के डॉ. ग्रियर्सनो सदस्य रहलें आ भारतेंदु हरिश्चन्द्र के फुफुआउत भाई बाबू राधेकृष्ण दास ओकर अध्यक्ष बनलें। राहुल सांकृत्यायन सहित तमाम भोजपुरिया बुद्धिजीवी समाज पूरजोर तरीका से भोजपुरी के परम्परागत लिपि कैथी आ महाजनी आदि छोड़ के देवनागरी के प्रचार-प्रसार कइल। भारतेंदु हरिश्चन्द भी बलिया के नया कलक्टर मिस्टर रोज के अगुआनी करत देवनागरी लिपि का चलन के लागू करावे के निहोरा करत लिखलें-

'उरदू बदल देवनागरी अछर चले,
इहे एगो साहेब से ए घरी अरज बा। '

भारतेंदु हरिश्चन्द्र का हर नाटक में पात्र आ प्रसंग का दिसाईं भोजपुरी के संबाद भरल-पड़ल बा। जवना पर कबहीं बिस्तार से बात कइल जाई। उदाहरन जाने खातिर हमरा किताब 'भोजपुरी गद्य साहित्य : स्वरूप, सामग्री आ समालोचना' देखल जा सकेला। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साफ कहनाम बा कि 'भारतेंदु जी त निश्चित रूप से बनारसी भोजपुरी में बहुत बढ़िया कविता लिखि गइल बानी।' (देखीं - भोजपुरी के अस्मिता चिंतन; सं. आनंद संधिदूत, कृष्णानंद कृष्ण आ भगवान सिंह भास्कर, पन्ना-२८)
सम्प्रति:
डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

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