आपन बंदनीय बच्चू बाबा - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

आपन बंदनीय बच्चू बाबा
- प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

जइसे चुल्हा पर चढ़ल पतिला में गऊ माता के दूध सुखल चिरल चइला के धीम धाह वाला आँच पर गंवे-गंवे गर्माला, उबलाला, सनसनात फफात बहरियाला भा पाझाला, ठीक ओही तरी कवनो बिषय पर अंटकल चित्त आपन छिछिआए - बउखे के वृत्ति से बहरियाके नीक निरइठ मन-मानस पर मोहाइल-छोहाइल कुछ कहे खातिर सुगबुगाला, तब ओह अवस्था में पोढ़ाइल-पझाइल कवनो मनई एके टक ओह बिषय-बिचार के निहारत आ ओकरा से जुड़ल एक-एक पक्ष के उघारत भा संवारत चलेला।

आज हमरो मन-मानस में आपन बंदनीय बच्चू बाबा पइसल बाड़ें आ हम देख रहल बानीं कि कद-काठी से मकोर बांस मतिन लम्छर दूबर-पातर एक सीध वाला, बेबार के चमकत चान आ मुँह में गुलगुलावत मगही पान का सङ्गे मनगर मनई के मिलते मधुर मुस्कान छोड़त देह पर गर्दाखोर गोल गला के कुर्ता आ डांड़ से गोड़ के फिल्ली तक रेघियावल पतराइल धारी के धोती अंगेजले कान्हे गमछा आ हाथे कवनो पोथी लिहले आपन चरन चापत चलल जा रहल बाड़ें बच्चू बाबा। बच्चू बाबा मतलब छपरा वाला प्रोफेसर बच्चू पाण्डेय। बड़-बड़ कान कवनो ऋचा भा सुक्ति सुने खातिर सजग बा त औसतन छोट-छोट आँखि बारीक से बारीक लौकिक-अलौकिक बिषयन के टोहे-जोहे के उतजोग में बाझल बाड़ी स। तर-ऊपर चिपकल चुपाइल ओठ बोध करावऽत बाड़ें स कि अबहीं मानस-मंथन के बेला में कुछ कहे के जगही ग्यांन गहे के छन बा। बाबा के हम पिछिला सतरे-अठारे बरिस पहिले तक एही भाव में भींजत-नहात देखले रहीं आ ऊ आजो अपना नस्वर काया ना रहला के बावजूद हू-ब-हू ओइसहीं अपना मन-मिजाज का सङ्गे हमरा मानस में आसन मार के बइठल-पइसल बाड़न।

अस्सी के दसक में पहिले पहिल मिलल रहलें बच्चू बाबा एगो सावन सुक्ला सतमी के मसरक कालेज के तुलसी जयंती समारोह में। गोसाईं जी पर बाबा के ब्याख्यान आ कवि सम्मेलन में उनकर कबिताई सुनके उनका में सहजे अनुराग जागल रहे। भोजपुरी, हिन्दी, संस्कृत आ उर्दू के सरमेजे समारोह रहे। जे जवना में अपने आपके अभिव्यक्त करे। गोस्वामी तुलसीदास पर बोलत बच्चू बाबा कहले रहस - 'गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी, अवधी भा भोजपुरी साहित्य के ही ना रहलें, बल्कि सउंसे भारतीय साहित्य के सर्वाधिक सुख्यात लोकप्रिय कवि रहलें। काहे कि उनका सउंसे साहित्य के जान-परान बा - उनकर समन्वय - भावना। विविध भाषा, समाज, आस्था- मान्यता, दर्शन, साधना, बिचार, पंथ, निष्ठा आदि वाला देस के लोकनायक उहे ब्यक्ति हो सकऽता जे समन्वय के भावना से भरल होखे आ मन- बचन- कर्म से सुरसरि गंगा मतिन हितकारी होखे। एही भाव के परोसत नू ऊ कहले बाड़न -

'कीरति भनिति भूलि भल सोई, सुरसरि सम सभ कहं हित होई।'

जवन कवि सभका में अपना आराध्या आ आराध्य सिया जी आ राम जी के देख-जान के सदैव सम्मुख दसो नोह जोड़ले ठार होखे ऊ कबो केहू का सङ्गे भेद-भाव के बेवहार कहां कर सकऽता? हं कथा-कहानी के संदर्भ-प्रसंग के जरूरत के मुताबिक ओकर पात्र कुछ भेद-भाव चाहे मान-अपमान भा हिंसा-अहिंसा के बात-बेवहार करत नजर आवे त ऊ तुलसी के बिचार-बेवहार ना हो सके। अइसे डाही बिचार के मत्सरी मनई त केहू के मान-बराई ना सह सकेलें आ हरसट्ठे हरुस-पातर बोलत-लिखत रहेलें। तुलसीदास हरदम सत्य, सज्जन आ सद्बेवहार के पक्षधर आ प्रशंसक रहल बाड़ें। हर प्रानी ईश्वर के अंस ह आ उनकर बनावल ह। सभका में ऊ ईश्वर यानी राम मतलब हरि के बास बा। केहू अपना ऊंच कर्म आ गुन से पुजाला। हरि से बिमुख आ अधम गुन - कर्म वाला कवना काम के? -

'तुलसी भगत सुपच भलो, भजे रैनि दिन राम।
ऊँचो कुल केहि काम के, जहाँ न हरि को नाम।।
अति ऊँचे भू-धरनि पर, भुजगन के अस्थान।
तुलसी अति नीचे सुखद ऊख, अन्न अरु पान।।'

बच्चू बाबा से एगो श्रोता के प्रश्न रहे कि तुलसीदास के समय में इस्लाम के कट्टरता चरम पर रहे। बाकिर ओकरा पर उनकर कलम काहे नइखे चलल? कहीं हिन्दुअन पर अत्याचार के उलेख काहे नइखन कइले ?

एह प्रश्नन के उत्तर देत बाबा कहले रहस कि समर्थ कबि के काव्य - सृजन सांस्कृतिक यज्ञ- योग मतिन होला। ऊ हर चीज के हरसट्ठे अभिधा में ना कहे-लिखे। बहुत बात लक्षणा-व्यंजना में राखेला आ ओहू में तुलसीदास जइसन विश्व कवि। उनकर कलजुग बरनन पढ़ जाईं सब कुछ आँखि के सोझा झलझल लउके लागी। बाकिर ओकरो के देखे खातिर आंखि चाहीं। ऊ इस्लाम मजहब के हिंसा आ कट्टरता आ हिन्दू धर्म पर ओकरा घात - आघात के ओर संकेत करत लिखले बाड़न -

'अधम निसाचर लीन्हें जाई।
जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।'

तब से लेके आखिरी दिन ले जब कबो मंच से बच्चू बाबा से सुने के सुअवसर मिले त हम अपना के परम सौभाग्यशाली मानत रहीं। कई मंचन पर उनका सोझा बोले में झिझक होखे त उत्साह बढ़ावत कहस - ' अरे तूं त एतना नीमन बोलेलऽ। काहे नइखऽ बोलत। ' तब आदमी कुछ कहे के हिम्मत करत रहे।

अस्सी-नब्बे के दसक तक का दू हजार सात-आठ तक छपरा साहित्यिक-सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में जानल जात रहे। एक से एक कबि, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी, कलाकार आदि के कवनो ना कवनो आयोजन-समारोह में सुने-गुने के अवसर मिल जात रहे। पहिले रामनाथ पाण्डेय, सतीश्वर सहाय वर्मा सतीश, हरि किशोर पाण्डेय, डॉ. विश्वरंजन, अमिय नाथ चटर्जी, वीरेन्द्र नारायण पाण्डेय, रूखैयार साहेब आदि आदि के सुने-समुझे के सुयोग बन जात रहे। ओह हर आयोजन के अध्यक्षता प्रायः बच्चू बाबा ही करीं आ उनकर अध्यक्षीय उद्बोधन सुने खातिर लोग आखिर ले जमल रहत रहे। भोजपुरी के एक-एक सब्द के तउल-तउल के राखस। उद्बोधन के दरम्यान जब संस्कृत आ उर्दू का सब्दन के जब बीच-बीच में जड़स त उद्बोधन के प्रभावोत्पादकता बढ़ जात रहे।

बच्चू बाबा त्याग-तपस्या के अजगुत परतोख दधीचि रिसि के धरती सारन के रिसिए-महात्मा रहस। उनका व्यक्तित्व आ कर्तृत्व के जदि केहू साङ्गोपाङ्ग जानीं से जरूरे मानीं। एक तरह से उनकर जिनगी रत्नगर्भा सारन के अभिनंदने करत रहे। अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के बारहवां अधिवेशन छपरा में नधाइल रहे त ओकरा स्मारिका के संपादक रहलें बच्चू बाबा। स्मारिका में उनकर संपादकीय 'बोले माटी सारन के' मथेला से छपल रहे। जवना के सिरि गनेस उनकर मुक्तक रहे -

'त्याग तपस्या के भींजल, माटी जहँवा के चंदन बा
जग का आंगन में विहँसत, महिमा मंडित ई नंदन बा
जेकरा गरिमा से पनकल, इतिहास धरोहर युग युग के
सारन का धरती मइया के, नित सौ सौ बार अभिनंदन बा'

बच्चू बाबा का साहित्य सृजन से सम्यक् ढ़ंग से परिचित होखे खातिर उनका गद्यात्मक आ पद्यात्मक साहित्यन के घोंके के पड़ी। ओहू में उनका कवितन के तह तक जाए खातिर सब्दन का कोषीय अर्थ के जानल भर पर्याप्त नइखे। ओकरा सांस्कृतिक आ आध्यात्मिक संदर्भ आ कवितन में ब्यवहृत बिम्बन आ प्रतीकन का विधानन के बूझे-समुझे के पड़ीं।

आठ जून दू हजार आठ के उनका दिवंगत भइला के बाद उनकर तीन गो पुस्तक 'नभ में उड़ल कपोत', 'फिर पलाश-वन लहके' आ फिर 'उजास को बोना है' उनका जामाता अनुकरणीय व्यक्तित्व के मनई ज्योतिष पाण्डेय के सद्भाव आ सद्प्रयास के बदौलत छपल। ज्योतिष पाण्डेय जी हर साल बच्चू बाबा के जयन्ती छपरा में खूब धूमधाम से मानइले आ एह अवसर पर कवि-साहित्यकार रूप में समाज-देस खातिर साहित्य-कर्म रूपी सांस्कृतिक योग-यज्ञ के साधना में रत लोगन के सम्मानित करिले।

बच्चू बाबा का रचना में बार-बार 'फिर' सब्द के प्रयोग मिलऽता जवन उनका आस्थावान आ आसावादी जिनगी जीये का संकल्प के ओर इसारा करेला। दर्जन से ऊपर साहित्यिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि संस्थन से सक्रिय रूप से जुड़के हर तरह के भाव-अभाव के झेलत अपना रचनात्मकता आ सकारात्मकता के बनवले राखल उनका जीजिविषा के अनुपम उदाहरन बा। आईं हमनीं उनके दू सब्द दुहरावत अपने आप में सकारात्मकता के संचार करीं -

'आईं हमनीं मिल जूल के कुछ गढ़ीं सुरक्षा घेरा।
बचपन के व्यक्तित्व निखारीं, जागे के ई बेरा।।'

- प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'
- प्रोफेसर सह विभागाध्यक्ष , स्नातकोत्तर भोजपुरी
विभाग, बी आर अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय,
मुजफ्फरपुर ( बिहार )
पिनकोड - ८४२००१

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