तिहत्तर जनम- विष्णुदेव तिवारी

(भोजपुरी कहानी)
तिहत्तर जनम: विष्णुदेव तिवारी

हम पहिला हाली कब जनम लेले रहीं से त हमरा पता नइखे, बाकिर जब से पता बा तब से आजतक के, हमरा जिनगी के मये घटना, साफ-साफ हमरा दिमाग में दर्ज बा। एह में रउरा अचरज करे खातिर कुछ नइखे। जब आदमी के बनावल एगो छोटहन चिप में महाशंखो से महाशंख सूचना तहिया के रखल जा सकता बा आ ऊ जब चाहे तब ओकर मनमरजी इस्तेमाल क सकत बा, तब भगवान के बनावल चीज का कुछ ना रक्षित आ सुरक्षित रख सकत बा?
हमरा मन परत बा कि पहिला हाली हम खूब सज-धज के महाराज समुद्रगुप्त के सेना में शामिल भइल रहीं आ महाराज अपने हाथे हमरा लिलारे तिलक लगवले रहलें। अपना शस्त्रागार से एगो खूब चमकत भाला निकाल के हमरा हाथ में थम्हावत ऊ कहले रहले–”सोमदत्त! तूँ प्रधान सेनापति बनावल जा रहल बाड़ आ तहरे अगुअई में मगध के सेना आटविक राज्यन के उच्छेद करे निकली।”
हम महाराज के अभिवादन करत बड़ा विनम्रता से बाकिर दृढ़ शब्दन में कहलीं– “देव, राउर आज्ञा के पालन कइल हमार पवित्र कर्तव्य बा। हमार कीर्ति बढ़ी, बाकिर… महाराज, एगो शंका बा।”
“कइसन शंका? कवन शंका?
“पृथ्वीपति! हम सुनले बानीं कि आटविक राज्य बड़ा बरियार बाड़ें स। आमने-सामने के जुद्ध में उहनीं से पार पावल… अतना आसन नइखे, महाराज!”
समुद्रगुप्त, जइसे साँप देखेला ओइसे, हमरा ओर ना देख के हमरे ओर देखत रहन। हमरा ना बुझाइल कि ऊ मुस्कियात बाड़े कि खिसियात बाड़े। ऊ तनल रहले। हमहूँ तनल रहीं बाकिर हमार आँख झुकल रहली स। हमरा दहिने हमार कनिष्ठ सेनापति आ बायाँ ओर सैन्य-टुकड़ियन के अधिपति रहे लोग। तनिके देर में, जइसे महाराज सुतला से जागल होखसु, तनी गर्हुआइले बोलले–”सोमदत्त! जीते खातिर आमने-सामने के कवनों माने ना होला। हमरा जय चाहीं– आटविक राज्यन के विध्वंस पर महान मगध के विजय। तूँ ओकनी के चाहे जइसे हराव– शक्ति से, छल से, जइसे होखे तइसे!”
हम जीव-जान से लड़लीं। हम जानते रहीं कि प्रत्यक्ष युद्ध में उहनीं के हरावल संभव नइखे तबो हम छल ना कइलीं। अंतिम साँस तक लड़लीं आ वीरगति प्राप्त कइलीं।
हमार आत्मा हमरा मुअते हमरा देंह से मुक्त हो गइल, बाकिर ऊ ओही घरी जनम ना लिहलस। ऊ समरेभूमि में अलोपित हवा के संगे एने-ओने मेंड़र मारत घूमत रहल। ओकरा के केहू देख ना सकत रहे, बाकिर ऊ सबके देखत रहे‌।
हम विशुद्ध आत्मा रहीं। हम सोचलीं कि महाराज के झंडे प सवार हो जाईं आ मये कौतुक देखीं। एने कुमारामात्य उपशेष कहलें कि महाराजाधिराज समुद्रगुप्त जुद्ध के नेतृत्व अब खुद करिहें।
महाराज दहिना हाथे चमकत तरुआर उठवलें आ सारथी के रथ आगा बढ़ावे के आज्ञा दिहलें। उनकर रथ शत्रु सेना में एह तरी घुस गइल जइसे सुरुज बदरिन के बीचे घुस जाला। रथ के पाछा कसमसात सैनिकन के हूह करत झुंडो घुस गइल रहे। रोहा-रोहट मच गइल। गरदन गिदिली खेले लगली स। छटपटात मुंड। छटपटात हाथ-गोड़। जुद्धभूँइ में रकत के पवनार बह चलल रहे–जेमें मानव अंग कटाइल जलचरन अस अंत-अंत तक बाँच जाये के उमेद में, एक-दोसरा के ऊपर तलफलात ढहत जात रहे। महाराज के सेनापति बाद में अंदाजा लगवलें कि तकरीबन पचास हजार लोग मारल गइल रहलें आ एकरा से बेसिये घवाहिल रहलें। आसमान के आँख एह आफत-बिपत में रह-रह के रोवत रहल, बाकिर ओकरा प के ध्यान देउ!
जितला के बाद महाराज जवन आयोजन कइलें ओह में देवगुरु बृहस्पति, अभिनेता नारद आ गायनाचार्य तुम्बुरू आइल रहले। राजकवि हरिषेण के मंगलाचरण के बाद बंदीजन के जयघोष हिमालय तक गूँज उठल। हम महाराज के तरुआर देखलीं। ऊ शत्रु-खून में नहाइल रहे। राजपुरोहित ओकरा के गंगाजल से धोके फेन से महाराज के हाथ में सुशोभित करवा देले रहले। महाराज के लिलार अँगार अस दहकत रहे आ ऊ सिंहासन से उठ के तरुआर हवा में एह तरी लहरवलें जानूँ महाभारत के फेर से टाँकत होखसु।
ओने ऋत्विक लोग स्वस्तिवाचन शुरू कइले, एने हमार आत्मा हवा से मुक्त होके ब्रम्हलोक का ओर पयान क दिहलस।
ब्रम्ह-संसद में हम ब्रम्हा के सामने अकबकाइले खाड़ रहीं।
“तोहरा अबकी निर्धन जन के घरे जनम लेबे के होई”-- ब्रम्हा कहलें।
हमरा लागल कि ऊ कुछ बेसिये अनराज बाड़ें। होखसु! हमार का!-- हम सोचलीं आ बिना डेरइले उनका अगिला सब्दन के इंतजार में उनका ओरि उत्सुक आँखी ताके लगलीं। हम ताकिये भा सोचिये भर सकत रहीं काहें कि ब्रम्हलोक में धरती के कवनों प्राणी के मुँह से कवनों सबद ना निकल सकत रहे। हम कोशिश त बहुते कइलीं बाकिर बकार ना फूटल।
हम मनेमन सोचलीं– ”काहें विधाता! हमार का दोष?”
ब्रम्हा मुसुकइलें। ऊ हमरा मन के बात जान लेले रहलन। उनका मुसुकी के मरम हमरा समझ के बाहर के बात रहे। ऊ ओही भावे फेर कहलें– “काहें कि तूं लड़ाई में कवनों अनुचित साधन ना अपनवल जबकि तोहरा के बतावल गइल रहे कि ओहिजा हार छोड़ के सब जायज बा।”
हम फेर सोच में पर गइलीं। खीसियो बरल। लागल ब्रम्हा के आखर-आखर चिंदी-चिंदी होके खून में मरिचा अस मिल गइल होखे। मये देंह भभा गइल, बाकिर हम करिये का सकत रहीं? मृतुभुवने के गमन आ आगमन पर एहिजा के सत्ता चलत बा आ अइसन अनर्थ? आ, अभिव्यक्तियो के डँड़रस्सी लाग गइल? हमरा सोचला आ हमरा अनकसइला के ओहिजा कवनों अर्थ ना रहे। ब्रम्हा कहलें– "हम जानत बानीं जे तूं का सोंचत बाड़। इयाद रख– इहो लोक तहरे लोक अस प्रज्ञावान ह। एहिजो तोहरे अस न्यायतंत्र बा– किताब में दोसर, बर्ताव में दोसर!”
हमार धुकधुकी बढ़ गइल। हमार सूखत ओठ रह-रह के फरक जात रहले स, बाकिर हम चुपे रह सकता रहीं। तबे मंद-मंद मुसकात सरस्वती प्रवेश कइली। हम चिहुँक गइलीं। हंस अपना चोंचें कमलनाल दबवले रहे, बाकिर सरस्वती के करे कवनों पुस्तक ना रहे। ब्रम्हा उठलें। ऊ अपना प्रिया के अँकवारी में बान्हत बायाँ ओर बइठल एगो स्वर्ण पुरुष से कहलें– “चित्रगुप्त! एह विश्वासघाती के भाग्य में तिहत्तर जनम तक गरीबी टाँक द।”
चित्रगुप्त अइसने कइले।

- विष्णुदेव तिवारी
बक्सर (बिहार)

लोकप्रिय पोस्ट

मुखिया जी: उमेश कुमार राय

मोरी मईया जी

डॉ रंजन विकास के फेर ना भेंटाई ऊ पचरुखिया - विष्णुदेव तिवारी

डॉ. बलभद्र: साहित्य के प्रवीन अध्येता - विष्णुदेव तिवारी

भोजपुरी लोकजीवन के अंग - नृत्य, वाद्य आ गीत - संगीत- प्रो. जयकान्त सिंह