बटोहिया : एक अध्ययन (भाग - 3) - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

बटोहिया : एक अध्ययन(भाग - ३)
- प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'
प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

रघुवीर नारायण जब 'बटोहिया' की रचना अपनी मातृभाषा भोजपुरी में कर रहे थे तब वह काल द्विवेदी युग के मध्य का था। काव्य की भाषा ब्रजभाषा थी और राज-काज की भाषा फारसी। खड़ी बोली में गद्य लिखना जितना सहज लगता था उतना पद्य लिखने के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती थी। नागरी लिपि के लिए संघर्ष हो रहा था। हिन्दुस्तानी पहले अरबी - फारसी में लिखी जाती थी। सन् १८८१ ई. के बाद वह कैथी में भी लिखी जाने लगी। कचहरी की भाषा उर्दू बन गई थी। सन् १९०० ई. में "सरस्वती" पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और तीसरे वर्ष से ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उसका संपादन करने लगे थे और बाबू श्यामसुंदर दास उनके संपादन कार्य में सहयोग कर रहे थे। सन् १९०३ से सन् १९२० तक द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य लेखन को निर्देशित कर रहे। फिर भी उनके काल को इतिवृत्तात्मक युग ही माना जाता है। रघुवीर नारायण सन् १९०८ ई. में ' बटोहिया ' लिखने के बाद सन् १९१० ई. के पूर्व अपने 'रम्भा' खंडकाव्य की रचना खड़ी बोली में कर चुके थे। मैथिलीशरण गुप्त का 'जयद्रथ वध' खंडकाव्य सन् १९११-१२ ई. में लिखा गया। इस प्रकार से रघुवीर नारायण का खंडकाव्य 'रम्भा' खड़ी बोली का प्रथम खंडकाव्य है। पता नहीं द्विवेदी जी और शुक्ल जी ने इसका उल्लेख करना क्यों नहीं उचित समझा?
द्विवेदी जी ने अंजान कवि हीरा डोम की भोजपुरी कविता 'अछूत की शिकायत' को तो सन् १९१४ ई. में 'सरस्वती' में स्थान दिया, परन्तु, पता नहीं रघुवीर नारायण के राष्ट्रीय चेतना के शब्दावतार 'बटोहिया' और खड़ी बोली के प्रथम खंडकाव्य 'रम्भा' से कैसे अंजान रहे गए थे?
रघुवीर नारायण के 'बटोहिया' को पढ़ने पर यह अनुभव होता है कि उनको अपने देश भारतवर्ष के सम्पूर्ण गौरव पक्ष को अपनी मातृभाषा भोजपुरी के माध्यम से प्रकट करते हुए गर्व की अनुभूति हो रही है और वे उसे भाई बटोही को भी साझा करके आह्लादित हो रहे हैं। हिमालय से विंध्याचल पर्वतमाला तक की भूमि वैदिक भोज गणों की भूमि रही है। और यह भोज - भूमि वैदिक और लोकिक कविता की जन्म भूमि रही है। वेदगर्भ (बक्सर) के वैदिक कवि विश्वामित्र और पिप्पली वन (चम्पकारण्य / चम्पारण) के लौकिक कवि बाल्मीकि भारत के ही नहीं, विश्व के सभी कवियों के आदि पुरुष रहे हैं। 'बटोहिया' के कवि का ध्यान भी सर्वप्रथम इसी भारतीय भू-भाग के प्राकृतिक सौंदर्य पर जाता है और उसका उल्लेख करते हुए वे बटोही को बताते हैं कि मेरे भारत की धरा अत्यंत सुन्दर है। वे भूमि शब्द के आगे सु उपसर्ग लगाकर इसके शुभ्र, सुखद और सुमंगलकारी स्वरूप से बटोही का परिचय कराना चाहते हैं। इस कवि के एक सुभूमि शब्द से सन् १८७५ ई. में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की लिखी राष्ट्र वंदना 'वंदे मातरम्' में इस भूमि के लिए लिखे सुजलाम, सुफलाम, शस्य श्यामलाम आदि शब्दों का सहज ही बोध हो जाता है। चटोपाध्याय ने अपने इसी गीत को फिर सन् १८८२ ई. में रचित अपने उपन्यास 'आनंद मठ' के पात्र भावानंद के द्वारा महेन्द्र को सुनवाया है जैसे रघुवीर नारायण स्वयं अपने भाई बटोही को सुना रहे हैं।
वैश्विक धरा के इस बड़े भू-भाग का नाम भारत भरत नामक परम प्रतापी सम्राट के पुण्य - प्रताप के प्रतीक स्वरूप रखा गया है। ऋग्वैदिक काल में इस आर्य भूमि पर कई गणों का साम्राज्य था और उनके बीच उपजाऊ भूमि, धार्मिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि कारणों से यदा-कदा आपस में संघर्ष और फिर संवाद - सहमति के आधार पर सहयोगपूर्ण जीवन - व्यापार चलता रहता था। उसमें भरत और भोज गणों के संघर्ष का प्रसंग भी उल्लेखनीय है। विश्वामित्र पहले भरत गणों के पुरोहित थे और बाद में भोज गणों के पुरोहित आचार्य हो गए थे तथा भरत जनों ने वशिष्ठ को अपना पुरोहित आचार्य बना लिया था। वैदिक संस्कृति के विस्तार में इन दोनों जनों के संघर्ष और फिर आपसी प्रेम - सहकार की बड़ी भूमिका रही है। इस भरत और भोज शब्द का अर्थ समान ही है। भरत जन अर्थात् सबके भरण - पोषण की व्यवस्था करने वाले जन। जिसके लिए सम्पूर्ण वसुधा ही परिवार अर्थात् कुटुम्ब था - 'वसुधैव कुटुम्बकम्'। तथा उसी परम्परा को आगे भी बढ़ाने वाले भरत नामधारी राजाओं की साम्राज्य - भूमि भारत कहलाया। इसको दूसरे शब्दों में कहें तो भरत जनों अथवा राजाओं के मानवतावादी वैचारिक आभाओं में रत रहने वाला सुभूमि है यह सनातन भारतवर्ष।
भोज गणों का उल्लेख भी ऋग्वेद में बड़े सम्मान के साथ किया गया है। ऋग्वेद में सबका भरण पोषण करने वाले को भोज कहा गया है - 'भरेषु भोज:'। वेदगर्भ के वैदिक ऋषि विश्वामित्र अनेक अवसरों पर अपने यजमान भोज गणों की प्रशंसा करते नजर आते हैं। वैदिक काल के बाद पौराणिक और ऐतिहासिक काल में भी भारतवर्ष के कई भागों में फैले यशस्वी भोज उपाधि धारी और नामधारी महापुरुषों तथा राजाओं का उल्लेख मिलता है। इन्हीं भोज उपाधि धारी तथा नामधारी राजाओं की कुल - परम्परा में आए कन्नोज और मालवा के भोज अथवा उनके वंशजों द्वारा बिहार के वेदगर्भ अथवा व्याघ्रसर अथवा बक्सर के समीप बसाये भोजपुर (भोज + पुर/ नगर) की बोली को 'भोजपुर ' नाम दिया गया, जिसमें रघुवीर नारायण अपने भारत के अतीत और वर्तमान विविध विशेषताओं का यशोगान कर रहे हैं।
'बटोहिया' का कवि जब आरंभ में ही लिखता है -
'सुन्दर सुभूभि भइया भारत के देसवा से,
मोरे प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया।
एक द्वार घरे राम हिम कोतवलवा से,
तीन द्वार सिन्धु घहरावे रे बटोहिया।।'
तो "वृहस्पति आगम" का वह श्लोक याद आ जाता है, जिसमें कहा गया है कि हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक देवनिर्मित देस हिन्दुस्थान कहलाया -
'हिमालमात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।'
अथवा विष्णु पुराण का वह श्लोक जिसमें कहा गया है कि समुद्र (हिन्द महासागर) के उत्तर और हिमालय से दक्षिण के वर्ष यानी भूखंड का नाम भारत है और इस सुभूमि वाले भारत में बसने वाले भारतीय उनकी संतान है -
'उत्तरं यत् समुन्द्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति।।'
यही हम भारतीयों की विशेषता है कि हम सभी इस सुभूमि यानी पृथ्वी को माता और स्वयं को उनकी संतान मानते हैं -
'माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या । पर्यजन्य: पिता स उन: पिपर्तु।।' (अथर्ववेद, १२वां कांड, सुक्त -१, ऋचा - १२)
अर्थात्, यह सुन्दर सुभूभि हमारी माता हैं और हम इनके पुत्र हैं। मेघ (पर्जस्य) हमारे पिता हैं और ये भूमि रूपी माता और मेघ रूपी पिता मिलकर हमारा पालन करते हैं (पिपर्तु)।
वन सम्पदा से आच्छादित अरण्य - भूमि को सुभूमि यानी स्वयं के लिए उपयोगी अन्न - औषधि उत्पन्न करने के योग्य बनाने के लिए भी हमारे पूर्वज सुर जनों को अपने कुल के ही विपरीत विचार और जीवनशैली अपनाने वाले असुर जनों से सदियों संघर्ष करना पड़ा था। इस सुर और असुर शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ करने से ही सारे तथ्य समझ में आ जाते हैं। सू का अर्थ होता है उत्पादन और र का अर्थ होता है करने वाला अर्थात् सू और र के मेल से बने सुर शब्द का अर्थ होता है उत्पादन करने वाला और उसमें अ उपसर्ग जोड़ने से बने शब्द असुर का अर्थ हो जाता है उत्पादन नहीं करने वाला अथवा उत्पादन करने वालों की विधियों का विरोध करने वाला।
एक ही कुल - परिवार का कुशाग्र बुद्धि वालों ने देखा कि जंगल में वृक्ष के डाल से डाल टकराने अथवा भूमि पर पड़े पत्थर पर अनायास पत्थर मारने से उत्पन्न अग्नि हो जाती है और उस अग्नि से वन - जंगल जल उठने पर वहां की भूमि साफ - समतल हो गई , जहां वन - पशुओं के पैरों के खुरचन एवं उनके विष्टों के बीच गिरे जंगली अन्न, फलादि के बीज पुनः पौधा अथवा वृक्ष बनकर और अधिक अन्न - फल दे रहे हैं तो वे सब भी पीपल के डाल को आपस में रगड़ कर अथवा पत्थर से पत्थर टकराव अग्नि उत्पन्न करना सीख गए तथा बहुत समय तक अग्नि बचाये रखने के उद्देश्य से अग्नि संजोने की भी कला सीख गए। उसके पश्चात् वनों को काटकर तथा जलाकर कृषि योग्य भूमि तैयार करने लगे और उस भूमि पर अपने और अपनों के लिए अन्न, औषधि आदि उत्पन्न करने लगे। वे ही सुर, देव आदि कहलाए तथा उसी कुल - परिवार के जिन जनों ने इस कृत्रिम अन्न, औषधि, फल आदि के उत्पादन के लिए वनों - जंगलों को काटने - जलाने का विरोध कर उनकी रक्षा के लिए वैचारिक अथवा शारीरिक संघर्ष के लिए तत्पर रहे, उसे ही असुर और वृक्षों की रक्षा करने वाले को राक्षस कहा जाने लगा। सुर अथवा देव अपने इन असुर अथवा राक्षस जनों को अपने जीवन के लिए अन्न - औषधि उत्पादन के लिए प्रेरित करते रहते थे। जो उत्पादन करते गए वे विविध क्षेत्रों में समृद्धि को प्राप्त कर विकास के मार्ग में बहुत आगे बढ़ते चले गए और जो बिना वन तथा वन्य प्राणियों को क्षति पहुंचाए प्राकृतिक जीवन जीने के आग्रही रहे वे सभी पिछड़ते चले गए। इसी सुरों में एक नाम पृथु का आता है, जिन्होंने अपने प्रतिभा और पराक्रम से वनों से आच्छादित अरण्य भूमि को काटकर तथा अग्नि से जलाकर कृषि योग्य बनाया तथा उससे अन्न - औषधि उत्पन्न कर मनुष्य मात्र के भोजन का प्रबंध करना सिखाया। इसी पृथु के नाम पर इस भूमि को पृथ्वी पड़ा। पृथ्वी पर अंकुरित बीज और फूलन- फलने के योग्य बने पौधे मेघ के जल को पाकर शीघ्र अन्न के दानों को देने लायक बन जाते थे और यह अन्न और जल ग्रहण कर मनुष्य अपनी संतति बढ़ाते गए। इसीलिए ऋषियों ने इस पृथ्वी को माता और मेघ को पालने वाला पिता कहकर सम्मान दिया है। इसी कारण से हिमालय और हिन्द महासागर के बीच की भूमि को देवभूमि, सुरलोक और हिन्द तथा यहां बसने वाले को हिन्दू कहा गया -
'आसिन्धु सिन्धुपर्यन्तायस्य भारत भूमिका:।
पितृभूपुण्यभूश्चैव स वै हिन्दूरिति स्मृति: ।।'
बटोहिया का कवि अपनी इसी भावभूमि पर खड़ा होकर कहता है कि ये हमारे पूर्वज - यह मेरा है और यह तुम्हारा है, वाले छोटे छोटे विचार वाली गणना करने वाले नहीं थे वे पूरी वसुधा को ही अपना कुटुम्ब अर्थात् परिवार मानकर जीने वाले उदार चरित्र वाले थे, जिन्होंने अपने स्वाभाविक गुणवश अपनी शरण में आए पारसियों, यहुदियों, ईसा और ईसाइयों, मोहम्मद और अन्य इस्लाम मतावलंबियों आदि को शरण देते तथा भरण पोषण करते गए और उनमें से अधिकाधिक लोग छल - प्रपंच कर हमारे पूर्वजों के बीच ही विभेद उत्पन्न कर उन्हें और उनके वंशजों को परतंत्र बनाते गए। इस पराधीनता के कारण हम हिन्द के लोगों में अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न होती चली गई। हमारे गौरवशाली इतिहास में छेड़छाड़ कर अपने गरिमामय अतीत से अनभिज्ञ बना दिया गया है। अपनी अस्मिता से अनभिज्ञ हो चुके ये विस्मृत चेतना वाले मेरे भाई बटोही जाओ और चिंतन - मनन कर उस गौरवशाली हिन्द की दृष्टि से इस हिन्द को देख आओ। जिसकी दुर्दशा देखकर यहाँ की कोयल गाना भूलकर दर्द भरे स्वर में कुहुक कर सबकुछ बोल रही है। हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि जबलपुर जेल में कैद मां भारती का पूजारी कवि माखनलाल चतुर्वेदी सन् १९३० ई. अपनी कविता 'कैदी और कोकिला' में कोयल की बोली में हूक भरी वेदना सुनकर ही उससे उसका कारण पूछे थे - 'कोकिल बोलो तो' । वैसे भी विश्व के आदि लौकिक कवि बाल्मीकि के कंठ से भी कविता तभी फूटी थी जब उन्होंने मादा क्रोंच पक्षी के दर्द भरे स्वर को सुना था। यहां बटोहिया का कवि भी आत्मविस्मृत भारतीय बटोही से बार - बार यहां की प्यारी पक्षी कोयल की कुहुक में वर्तमान हिन्द की स्थिति सुनकर पुनः देखने का आग्रह करता है। यहां की प्रकृति यहां के लोगों के लिए अनुकूल तो है परन्तु हम सभी आत्मविस्मृति के शिकार हो गए हैं।
- प्रो. ( डॉ. ) जयकान्त सिंह ' जय '
(जयकांत सिंह 'जय' जी के फेसबुक पेज से साभार)

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