बटोहिया : एक अध्ययन - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

भोजपुरी राष्ट्रीय गीत ' बटोहिया ' अमर काव्यकार बाबू रघुवीर नारायण
- प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

बटोहिया : एक अध्ययन
'बटोहिया' शाश्वत सनातन सांस्कृतिक राष्ट्र भारतवर्ष का स्वबोधी राष्ट्रीय गौरव गान है जो लोक-संस्कृति और लोक-संगीत की पूर्वी भाषा भोजपुरी के पूर्वी लोकधुन में सृजित है। यह कारयित्री प्रतिभा से सुसम्पन्न युगचेता कवि रघुवीर नारायण की अतुलनीय काव्यकृति है जो अपने रचना - काल से ही सामान्य जनों से लेकर विशिष्ट काव्य-रसिकों तक को प्रिय है। भोजपुरी का यह राष्ट्रीय गीत मूलतः रघुवीर नारायण के राष्ट्रानुराग की भावात्मक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समकालीन साहित्यकार पाण्डेय जगन्नाथ प्रसाद सिंह के अनुसार रघुवीर नारायण ने अपने इस राष्ट्रीय गौरव गान की रचना सन् १९०८ ई. की थी और वह भी अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीसीतारामशरण भगवान प्रसाद अर्थात् रूपकला जी की प्रेरणा से। रघुवीर नारायण सन् १९०६ ई. में अपने गुरु रूपकला जी से मिलने और आध्यात्मिक प्रेरणा से अयोध्या गए थे। उस समय तक उन्हें अंग्रेजी के सुख्यात कवि के रूप में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा मिल चुकी थी और वे मुंगेर ( बिहार ) के उच्च विद्यालय से त्यागपत्र देकर बिहार के ही जिला स्कूल छपरा (सारण) में शिक्षक के रूप में पदस्थापित हो गए थे। आध्यात्मिक सत्संग के बाद गुरु ने अपने शिष्य रघुवीर नारायण को भारत की परम्परागत गुरुकुल शिक्षा - व्यवस्था के स्थान पर अंग्रेजी शासन - सत्ता द्वारा जबरन थोपी गई पश्चिमी शिक्षा - व्यवस्था, जिसके माध्यम से भारत की वैदिक, पौराणिक तथा ऐतिहासिक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक ज्ञान - विज्ञान के तत्व एवं तथ्य को तुच्छ - हीन - त्याज्य और पाश्चात्य सभ्यता - संस्कृति और शिक्षा - पद्धति को श्रेष्ठ - ग्राह्य बता - पढ़ाकर सदा - सदा के लिए भारतीय जनमानस में हीनता का भाव भरा जा रहा था , उन षड्यंत्रों का रहस्योद्घाटन करने के निमित्त जन-जन की भाषा में भारत के गौरवशाली अतीत से भारती के सपूतों को पुनः परिचय कराकर पराधीनता से मुक्ति दिलाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
गुरु रूपकला जी की वाणी सुनकर शिष्य और वृत्ति से आचार्य रघुवीर नारायण के मन - मानस का राष्ट्रानुराग जागा और उनका अन्तर्मन गुरु - परामर्श को गुरु - प्रसाद मानकर भारतवर्ष के गौरवशाली अतीत में खो गया। अक्सर अपने गुरु के भजन "भ्रमत भ्रमत तोहि बीतलें बहुत दिन, पायो भव पथ श्रम घोर रे बटोहिया। एको छन थरिता न होत बहु योनि बीचे, ताहू प न चले निज जोर रे बटोहिया।। ---------" को गुनगुनाने वाला कवि उसी पूरबी लोकधुन में भारत का गौरव गान गाने की कल्पना कर रोमांचित होने लगा था।
अयोध्या से लौटने के कवि रघुवीर नारायण ने पूरे मनोयोग से भारतीय वाङ्मय एवं अपने पास - पड़ोस के भारतीय परिवेश को पढ़ना प्रारम्भ किया। संयोग से सन् १९०८ ई. आते - आते बिहार के भारतीय नौजवान अंग्रेजों के बर्बर शासन - व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होने लगे थे। चम्पारण के नौजवान किसानों ने नील की खेती करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों द्वारा अपने ऊपर किये जा रहे अत्याचारों से त्रस्त होकर ऐसे उबले कि जहां नील कोठी वाले अंग्रेज ऑफिसर मिलते, वहीं मारने पर उतारू हो जाते थे। इधर बिहारी छात्र - नौजवानों द्वारा स्वदेशी आंदोलन चलाया जाने लगा था। ३० अप्रील, १९०८ को मुजफ्फरपुर में आततायी अंग्रेज जज किंग्स फोर्ड को मारने के उद्देश्य से खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा बम विस्फोट किया गया। दुर्योग से किंग्स फोर्ड बच गया और निर्दोष दो अंग्रेजी महिलाएं मारी गई। अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता आंदोलन का यह प्रथम बम विस्फोट था। इसके लिए खुदीराम बोस को ११ अगस्त, १९०८ को अंग्रेजी सरकार द्वारा फांसी की सजा दी गई। इस घटना के बाद बिहार के नौजवान और उद्वेलित होने लगे। ऐसी विकट परिस्थिति में भी अंग्रेजी शिक्षा - व्यवस्था में पले - बढ़े और अपने गौरवशाली भारत के शौर्य-पराक्रम को भुला चुके अधिकाधिक नौजवान किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बैठे थे। तब राष्ट्रीय चेतना से सम्पन्न कवि को बुद्धदेव और पृथु के साथ - साथ वीर अर्जुन और छत्रपति शिवाजी महाराज आदि अपने पूर्वजों की याद हो आई कि कैसे उन सपूतों ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समाज और राष्ट्र के लिए ही नहीं, बल्कि मानव - मात्र के लिए अपने अर्जित जीवन - दर्शन और पौरुष - पराक्रम को समर्पित कर दिया था -
"बुद्धदेव पृथु वीर अर्जुन शिवाजी के,
फिरि फिरि हिय सुधि आवे रे बटोहिया।।"
कवि रघुवीर नारायण के इस बटोहिया के लेखन - प्रसंग में उनके मित्र पाण्डेय जगन्नाथ प्रसाद सिंह सन् १९७७ ई. में सिवान ( बिहार ) में आयोजित अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के तीसर अधिवेशन में प्रकाशित स्मारिका में लिखते हैं कि रघुवीर नारायण सन् १९०८ ई. में छपरा से इक्का गाड़ी से अपने गांव नयागांव जा रहे थे। रास्ते में गोंड़ऊं नृत्य हो रहा था। जिसमें सभी नर्तक एक स्वर में पूरबी लोकधुन में गा रहे थे -" रमवा रे रमवा, करमवा रे करमवा, पियवा मिलल छुरिबाजवा रे रमवा।" यही पंक्ति और धुन वे गुनगुनाते गांव चले गए। रात भर जगे रहे और अर्द्धरात्रि के पश्चात् हठात उनके अंदर से कुछ काव्य - पंक्तियां फूटी -
"सीता के बिमल जस राम जस कृस्न जस,
मोरे बाप - दादा के कहानी रे बटोहिया।।"
अर्थात् भारत की नारी सीता तथा द्रोपदी के विमल यश और नारीत्व के रक्षार्थ त्रिलोक विजेता राक्षसराज रावण और पथभ्रष्ट कौरवों का समूल नाश करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और सुदर्शन चक्रधारी श्रीकृष्ण तो मेरे बाप - दादा अर्थात् पूर्वज तो थे और आज हम इन अंग्रेजों के अत्याचार को इसलिए सह - भोग रहे हैं क्योंकि इन सबों ने हम भारतवासियों के मन में अपने गौरवशाली अतीत के प्रति भ्रम उत्पन्न करने के उद्देश्य से पूरे ऐतिहासिक संदर्भों को मनगढ़ंत तथा कपोल-कल्पित बताकर हीन भावना भर दिया है।
कवि रत्नगर्भा और वीर प्रसूता इस भारत भूमि के आत्मविस्मृत हो चुके उन नौजवानों को इसलिए बार-बार बटोही कहकर संबोधित कर रहा है, क्योंकि वे सभी अपनी जीवन - जवानी की यात्रा यूं ही निरुद्देश्य समाप्त करते जा रहे हैं। कवि उन आत्मविस्मृत हो चुके तथा आत्मविश्वास खो चुके माँ भारती के सपूतों को भारत के भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, वानस्पतिक आदि सम्पन्नता तथा ऐतिहासिक उपलब्धियों से अवगत कराकर राष्ट्रहित में जगाना चाहता है। कवि आत्मविस्मृत भारतीयों को बताना चाहता है कि हम अशक्त और तेजहीन पूर्वजों की संतान नहीं हैं। हमें छलपूर्वक भ्रमित कर पराधीन बनाया गया है। हमारा हिन्द इस सम्पूर्ण जगत का सार है। उत्तर के हिमालय से लेकर दक्षिण के हिन्द महासागर तक का यह हिन्द देश विश्व का सिरमौर कल भी रहा है और आज भी है। पारसियों के धार्मिक ग्रंथ जिंद - अवेस्ता में कहा है कि आर्यान (आर्यायन) के जरथुष्ट्र के पास जाकर उनका सैनिक कहता है कि हिन्द से व्यास नाम का एक महाज्ञानी आया हुआ है। अवेस्तन भाषा में लिखे इस प्रसंग को पर्शियन में कुछ यूं अनुवाद किया गया है -" अकुन विरहमन व्यास नाम अलहिन्द अमलदस दूना की अकल चूनामस्त। "तब आर्यायन अथवा आर्यान सिन्धु पार स्थानी होने के कारण पारस्थानी और बाद में पारसी कहलाया। जरथुष्ट्र श्रुंजय के पुत्र वैदिक ऋषि ऋश्राश्व के दौहित्र और पिता पौरुषास्पा तथा माता दुग्धरा के पुत्र थे जो इन्द्र और वरुण के यज्ञ - प्रधान पद के संघर्ष को लेकर हुए आर्यावर्त के विभाजन के बाद सिन्धु नदी के पश्चिम चले गए थे तथा सिन्धु के इस पार हिमालय और हिन्द महासागर के बीच निवास करने वाले हम आर्य हिन्दू और हिन्दुस्थानी तथा ऋषि गुण सम्पन्न चक्रवर्ती सम्राट भरत के भारत के निवासी भारतीय कहलाए। इसी को कवि गर्व से गा रहा है -
"अपर प्रदेश देश सुभग सुघर वेश,
मोर हिन्द जग के निचोड़ रे बटोहिया।।"
कवि भारत के गौरव पक्ष को विस्मृत कर हीन भाव से त्रस्त भारतीयों में बार - बार आत्मगौरव - बोध भरने के उद्देश्य से इस शाश्वत सनातन और सदा सर्वदा जीवंत पुरातन हिन्द को अपने विवेक - चक्षु से देखने - परखने के लिए प्रेरित करते हुए कहता है कि यहाँ के द्रष्टा - स्रष्टा सदैव सम्पूर्ण वसुधा के कल्याणार्थ प्रगतिशील ऋषि आर्य - ज्ञान - धारा के रूप में सतत् प्रवाहित होने वाले ज्ञानसागर अर्थात् चारों वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद को गाते हैं। यह तब से गा रहे हैं जब विश्व के किसी अन्य भू-भाग पर जीवन की कल्पना भी नहीं की गई थी। विश्व का प्रथम ग्रंथ है अपना ऋग्वेद। वेद का अर्थ ही ज्ञान होता है। इसलिए यह सोचो और इस हिन्द के एक - एक पक्ष और एक - एक भू-भाग को सूक्ष्मता से देखो कि कैसे यहां हमारे ऋषियों ने इन अनंत ज्ञानसागर रूपी वेदों को गया है -
"जाऊ जाऊ भइया रे बटोही हिन्द देखि आऊ,
जहाँ ऋषि चारो वेद गावे रे बटोहिया।।"
- प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

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