ए मुखियाजी! रउरा त सभकर थाह लगा गईनी। चलनी के चालल सूपवा के फटकारल अपना के बता गईनी ए मुखियाजी! रउरा त सभकर थाह लगा गईनी। ए मुखियाजी! रउआ त जेकरा-जेकरा दुअरा गईनी भात-भवदी के त छोडीं बातो-बतकही छोड़ा गईनी ए मुखियाजी! रउरा त सभकर थाह लगा गईनी। ए मुखियाजी! रउरा त हाथ जोरि के दाँत निपोर के सबका के बुड़बक बना गईनी बाबू-बरुआ के महाभारत कराके झड़ुअन वोट बहार गईनी ए मुखियाजी! रउरा त सभकर थाह लगा गईनी। ए मुखियाजी! रउरा त चापलुसन के वंस बढ़ा गईनी दुआरा के कुकुरन के भी बब्बर शेर बना गईनी ए मुखियाजी! रउरा त सभकर थाह लगा गईनी। ए मुखियाजी! रउरा त जेकरा से ना बात-बतकही ओकरो से घीघीआ गईनी ढोंढ़ा-मंगरू छेदी-झगरू से छनही मे लाट लगा गईनी ए मुखियाजी! रउरा त सभकर थाह लगा गईनी। ए मुखियाजी! रउरा त गली-नाली के का कहीं मुड़ेरवो भसा गईनी आवास के आसारा में त घरओ में जोन्हीं देखा गईनी ए मुखियाजी! रउरा त सभकर थाह लगा गईनी। सम्प्रति : उमेश कुमार राय ग्राम+पोस्ट - जमुआँव थाना- पीरो, जिला- भोजपुर (बिहार)
कर जोरि बिनती करीला सुरसती मोरी मईया जी हे वीणापाणि! होखीं ना सहईया मोरी मईया जी। अज्ञान के अन्हरवा अंबिका लिखत बा बरबदिया सुर- ताल मतिया के माई हो होखत बा दुरगतिया डूबत बिया नदिया बीचवा नईया मोरी मईया जी। हम मुरुख अज्ञानी बानी ज्ञान के ज्योति जला दीं हमरी जेठ जिनिगिया मईया सुंदर फूल खिला दीं हे माहमाया! परत बानी पईंयां मोरी मईया जी। आरे आंखि अछइत ए अम्बे! भईल बानी आन्हर भरल बा जिनिगिया में मईया खाली डील- डाबर दीं ना कुल्हि मरजवन के दवईया मोरी मईया जी।
जा ए भकचोन्हर, तोहरा बात बुझात नइखे ? ई 'भकचोन्हर' सब्द बिहार का राजनीति में हल्फा उठा देले बा। सब्दन के सटीक प्रयोग के लेके हम त बड़का भइया माननीय लालू प्रसाद यादव जी के गुनगान करे से ना थकीं। ई एके सब्दवा यू. पी. - बिहार का जनता के जना-जगा दिहलस कि लालू जी निरोग बाड़ें आ बहरी आ गइल बाड़ें। कांग्रेसी लोग उनका पर बमकल बा त कुछ भकुरन के भक भुला गइल बा। भाकुर के बहुबचन भकुरन। भाकुर मतलब उल्लू होला। अँजोर में एकर भक मतलब बुद्धि हेरा जाला आ उहो दिसा हीन उड़ान भरे लागेला। इहे हाल भादूर/बादूर मतलब चमगादड़ो के होला। अब आईं ए भकचोन्हर सब्द पर। ई भक आ चोन्हर दू सब्द का मेल से गजब खेल करेला। भक के मतलब होला बुद्धि। वाक्य प्रयोग से समुझीं - 'झट से हमार भक खुल गइल' माने हमार तुरते बुद्धि खुल गइल। आ चोन्हर मतलब चक्षु चाहे चोख (आँखि खातिर बंगला के सब्द) के अन्हराइल भा चोन्हिआइल। एह तरह से एकर अर्थ-अभिप्राय होला - ऐन वक्त पर अकिल गुम हो गइल। बुरबकाही के सिकार भइल। बुद्धि के चिहउनी लागल। देस, काल, परिवेस आ परिस्थिति के हिसाब से सही फैसला ना ले पावे वाला आदमी खातिर भकचोन्हर सब्द के बेव
साहित्य में काल को किसी सीमा में बाँधना वैज्ञानिक कभी नहीं रहा क्योंकि किसी भी काल में कोई भी प्रवृत्ति या चित्तवृत्ति अचानक नहीं उत्पन्न होती है अथवा विलुप्त होती है। अचानक भाव उत्पन्न होते हैं, भावनायें समुद्भूत होती हैं। जब काल विशेष में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि परिवर्तन बड़े स्पष्ट हो जाते हैं और उनसे प्रभावित होकर साहित्य भी तद्नुसार अपना चोला बदल लेता है, तो कहा जाता है-युग परिवर्तन हुआ। कभी-कभी साहित्य दूर के प्रभावों से भी अपना रूप बदलता है, फिर भी, वैसा परिवर्तन ही दीर्घजीवी होता है, जो स्वयं साहित्य विशेष की अपनी आंतरिक सर्जनात्मकता से घटित होता है, बाह्य उद्दीपकों से नहीं। 1990 के बाद विश्व स्तर पर झकझोर देने वाली तमाम घटनायें हुईं, जिन्होंने मानव जाति के सारे वितान अस्त-व्यस्त कर दिए। मेहनतकशों के लिए आशादीप बना सोवियत रूस बुझ गया, बिखर गया और पूँजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका के शोषक-स्वप्न निखर गए। नव उदारवाद ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पंख लगा दिए और अर्थतंत्र विदेशी पूँजी से उड़ने लगा। किन्तु इस उड़ान ने बाजार के सारे बंद वातायन खोल दिए। पूँजी के अबाध
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