ई हवें खेसारी, बेराईं सभे - डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'



बात कुछ दिन पहिले के मन पड़ल बा। कह दीं ना त बिसर जाई। साँझि खाँ चाचा-भतीजा दुकान पर पहुँचल लोग। चाचा के देखते छवारिक दोकानदार बाबा के बइठे ला बिट्ठा देत परनाम कइलस। फेर पुछलस जे का चाहीं काका? ओकर सवाल सुनके चाचा बोललें जे एक सेर रहरी के दाल जोख दऽ। दोकानदार जुरते सेर भर रहरी के दाल जोख के कागजी खदोना में आगे रख दिहलस। चाचा पूछलें- रहरिए के दाल नू ह? एह पर ऊ दोकानदार बोलल- हं काका, आजुए त ई बोरा ले आइल बानी बनियापुर कावर से। आ पहिले-पहिले रउरे ला तउल रहल बानी।

चाचा खदोना खोल के कुछ दाल हाथ में लिहलें। मलले फेर नाक से सुंघलें। एकरा बाद हाथ में उलीचत कहलें- 'रे, तें हमरे के पढ़ावे लगले। ई रहर ह? ई त निठाह खेसारी ह। हम रहर आ खेसारी चिन्हबे ना करीं? साठ- एकसठ ले त हमरो किहां कुछ उपजते रहे। एकसठ में सरकार बोए, बेचे आ खाए पर रोक लगा दिहलस त बोअल छोड़ दिहनीं।' हम भक आ दोकानदारो भक। दोकानदार त माने खातिर तइयार ना। आ एने चाचा अपना जिद पर अड़ल। फेर चाचा कहलें- 'देख बबुआ, रहर आ खेसारी के चिन्ह सभका नइखे। आज लोग खेती- गिरहस्ती छोड़ रहल बा। बाजार आ दोकान पर जवने बता-समझा के लोग तउल देता। लोग उहे कीन-बेसाह के घरे ले जाता। अब त अर-अनाज के ना रूप-रंग चिन्हाता आउर ना असली सवादे भेंटाता। बाकिर रहर रहर ह आ खेसारी खेसारी। अँखिगर आ असली खेतिहर का एह दूनो के मरम आ फरक बुझाला। दूनो दलहने ह। दूनो के रूप रंग आ बनाव एके नीयन होला। बाकिर ओकर गुन आ सवाद अलग-अलग होला। अइसे आवऽ एकर फरक हम तोहरा के समझा दीं- देखऽ, एक त एकरा दाना के दल रहर के दाल से छोट होला, दोसरे ई रहर के दाल नीयन खूब पीअर ना होखे, तीसरे ई कुछ चकोर आ चापुट होला, चउथा के एकर सवाद कुछ कुछ मीठरस आ कड़ुआ होला अउर एकर तासीर ठंढ़ा होला। उहँवे रहर के दाल एकरा हजूरा ढेर पीअर होला आ एक ओर चिपटल आ दोहरा ओर से गोलाई लेले होला। बाकिर जब एह खेसारी के रहर के दाल का सङे फेंट दिहल जाला त इहो ओकरे भावे बिकाय लागेला। सबका एकर चिन्ह ना होखे।

एतना सुन के दोकानदार आपन माथ पकड़ लिहलस। फेर चाचा से बोलल- ' हम त ठगा गइनीं ए काका। एह से ई लागऽता जे अब लोग देहातो में ठगऽता। अइसे ऊ रेट बाजार से कमे लगा के दिहलस ह। हम त अजब ठगइनीं। एतना सुन के चाचा कहलें कि जब हम लरिका रहीं त दुआर पर रहर के दाल बेचे वाला आइल त हमार माई चिन्ह गइली कि ई खेसारी ह। फेर ओह बेपारी के डांटत कहले रहली-' नया नया पदना बनल बेपारी, लादे के रहर त लदलस खेसारी।' 'ए बाबू, तूं एकरा के रखऽ। हम एह बयाह चीज के बेसाह के का करब। एकरा से हमरा घर भर बेराला।' एकरा बाद चाचा-भतीजा लौट चलल लोग।

लौटे के त चाचा-भतीजा दोकानी से लौट आइल लोग। बाकिर भर रास्ता भतीजा इहे गुना-भाग करत आइल जे खेसारियो के त दाले होला। दाले ना ओकर कादो लोग सागो खाला फेर ओकर कवन कसूर बा कि चाचा दोकानदार के खेसारी के दाल लौटा देलें ह। जब घर-दुआर सगरो साँझ देखा दिहल गइल। चाचा आपन संध्या-पूजा करके अहथिर भइलें कि भतीजा उनका नियरा जाके बइठ गइले। चचो बुझ गइलें कि भतीजा कुछ पूछे पहुँचल बा। बाकिर ऊ अपना ओर कुछ ना बोललें त भतीजा खेसारी के लेके अपना सवाल रखलें कि आखिर खेसारियो त अनाजे ह फेर ओकर अइसन का कसूर भा अवगुन बा कि केहू खाई ना। सरकार आ अधिकारी लोग ओकरा बोए, कीने-बेचे आ खाए पर रोक लगा देला।

चाचा भतीजा के बात बहुते चाव से सुनलें आ फेर चालू भइल उनकर लम्बा परबचन - ' ई त ठीक बा जे खेसारियो एगो अन्ने ह। बाकिर आदमी अपना बिबेक आ अनुभव के आधार पर तय करेला कि कवन अन्न कब, कतना आ कवना हिसाब से खाइल स्वास्थ्य खातिर जरूरी ह आ स्वास्थ्य का हिसाब से कवन अन्न ना खाए के चाहीं। कहल बा कि 'जइसन खइबऽ अन्न, ओइसन होई तन-मन आ जइसन पीअबऽ पानी, ओइसन होई बोली-बानी।' अन्न का तासीर के असर आदमी का देह, दिल आ दिमाग पर होला। जीवन ला जरूरिआत हर बात के वेद-शास्त्र में खूब समझा-बुझा के आ फरिआ-फरिआ के लिखल बा। अथर्ववेद के उपवेद ह आयुर्वेद। जवना में बतावल बा कि हमनीं जवना अन्न के आहार बनाइले ओकरा में चार चीज होला- दही (दधि), घीव (घृत), मध (मधु) आ अमृत। ई कइसे, से समुझऽ।

पौधा भा झाड़ में लागल कांच अन्न के दाना मेंं दूध होला। कांच दाना के दबवला पर दूध निकले लागेला आ उहे जब पक्ठाके पाक जाला तब उहे दूध गढ़ाके वैदिक भासा में दही के रूप ले लेवेला। जवना से एह देह के मांस आ हड्डी आदि ठोस भाग बनेला। अइसन मान्यता बा कि अनाज के ई भाग पृथ्वी से आवेला आ ओकर अइसन ठोस होला। घीव अन्न के आगे के भाग ह। घीव मतलब चिकनाई। अन्न के दाना जब पीस के सानल-गूंथल जाला त ओकरा में लोच आ चिकनाहट आ जाला जवना से ऊ पिंड रूप में आ जाला। अन्न के ई भाग मतलब चिकनाई वाला घीव अंतरिक्ष के भाग ह। मध यानि मधु अन्न के तिसरका भाग ह। एकरे चलते अन्न में मिठास आवेला। बाजरा के आटा में बिना कुछ फेटले खइला पर मिठापन के अनुभव होला। आयुर्वेद के अनुसार अन्न में ई तत्व द्युलोक से आवेला। गायत्री मंत्र के 'ऊँ भूर्भुवः स्व' इहे पृथ्वी, अंतरिक्ष आ द्युलोक ह जवना से अन्न में दही, घीव आ मधु आवेला। अमृत अन्न के चउथा भाग ह। जवन अन्न के आउर सुस्वादु आ गुनकारी बनावेला।जवना के आहार से मन तृप्त हो जाला। आयुर्वेद के अनुसार अन्न में ई तत्व गोलोक से आवेला। एह गोलोक के परमेष्ठि लोक भा विष्णु लोक कहल जाला। एही लोक से अन्न में सवाद भा अमृत मिलेला जवना के सोमरस कहल जाला।

एह तरह से जवना अन्न से ई तन-मन के रचना होला ओकर सिरजना में एह चारो लोक के भूमिका बा। ए मरम के जाने-बूझे वाला विवेकी आदमी ज़मीन, जल, जंगल आ जीव का बनल परस्पर आधारित जीवन चक्र से परिचित हो के पृथ्वी आ प्रकृति के मतारी मान के पूजा करेला। एही से वेद में कहल गइल जे 'पृथ्वी हमार माई हई आ हम उनकर संतान'- 'माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:।' एही से पुरखा-पुरनिया लोग जमीन के साफ-सुथरा राखे। जल के गंदा करेके पाप बतावे। जंगल का गाछ-बिरीछ के अकारन ना काटके देवता मानके पूजा करे। जीव रूप में आउर पसु-पक्षी आदि के देवी-देवतन के सवारी बताके रक्षा करे के भाव पैदा करके पर्यावरण के संतुलित राखे के उतजोग में लागल रहे।

आहार में लिहल अन्न सार क्रमवार कई रूप में बँट के देह के तइयार करेला। अन्न के सबसे पहिले रस बनेला जवन देह में रह जाला आ अन्न के जवन भाग रस ना बन पावे ऊ मल आदि बनके देह से बाहर निकल जाला। देह में बचल रस से खून, खून से मांस, मांस से चर्बी, चर्बी से हड्डी, हड्डी से मज्जा

आ मज्जा से सार रूप में शुक्र भा वीर्य बनेला। जवना के पाके आदमी में आपन संतान पैदा करेके क्षमता पैदा होला। कहे के मतलब ई कि अन्न का स्थूल भाग से देहे के रचने ना होखे बल्कि ओकर असर पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़त जाला। आ ओकरा सूक्ष्म भाग से मन-प्रान पुष्ट होला। एही से विवेकी आदमी अन्न के गुन-धर्म के विचार करके ओकर आहार करेला। कवन अन्न सात्विक आ हलुक प्रकृति के बा आ कवन राजसी भा तामसी आ भारी प्रकृति के। कवनो के आहार से देह, दिल आ दिमाग हलुक आ निरोग रही आ कवना के लिहला से ई सब भारी आ रोगी हो जाई। तासीर का हिसाब से कवन अन्न-अनाज कवना मौसम में कवना हिसाब से खाइल जाई भा ना खाइल जाई। एह सब पर पुरखा लोग विचार कइले बा।'

चाचा का प्रवचन से अगुता के भतीजा टोकऽलस- अरे चाचा, हम का पूछले रहनीं ह आ रउआ का का कह गइनीं। हमरा के खेसारी के बारे में आ ओकरा कसूर भा अवगुन के बारे में बताईं ना।' ई सुनके बाबा ठठाके हँसले आ बोलले- हं रे, हम कहाँ से कहाँ चल गइनीं। खैर, ऊ सब छोड़। अब खेसारी के गुन-अवगुन ध्यान से सुन।

ई खेसारी दलहन ह आ एकरा कलगल डाढ़-पात के गाहे-बगाहे लोग सागो बनाके खाला। बाकिर डेराइए के। ई रबी फसल मकई , गेहूं आदि में खर-पतवार लेखा उपजेला। आ जदि ढ़ंग्गर साफ सफाई ना कइल गइल त मकई-गेहूं कुल्ह के छाप लेवेला। फेर मकई गेहूं जइसन उपयोगी फसल लोग के जान-परान सांसत में पड़ जाला। ओह लोग के ऊ विकास ना हो पावे जवन होखे के चाहीं। पहिले वन विभाग सीसो, सगवान, नीम, बर, पीपर आदि उपयोगी गाछ-बिरीछ लगाई आ ओह सब के अनेरिआ माल-जाल से बचावे खातिर बबूर का कांट से रून्ह दी। बाकिर होई का जे ढ़ंग्गर निगरानी का अभाव में लगावल जरूरी पौधा लोग सुख जाई आ बबूरे ओह लोग का जगहा सीना तान के उपज जाई। जइसे पहिले नीमन-नीमन पढ़ल-लिखल समाज आ देस का प्रति जागरूक जानकार-वफादार नेता लोग का सेवा आ सुरक्षा में हट्ठा-कट्ठा, बरिआर, दबंग पहलवान लगावल जात रहलें। ऊ दबंग देखलें स कि ई नेतवा सब त हमनिए के बदौलत सुरक्षित बाड़न स आ लामा-लामा पिंगिल झांटत बाड़न स। एकनी के जनता भगवान लेखा पूजता। ई काम त हमनियों कर सकिले। फेर गंवे गंवे ऊ ईमानदार-जानकार आ समाज-देस ला वफादार नेता लोग बछात, छंटात आ ओरात चल गइल आ ओह लोग का आज वाला दबंग-दरंग सेवा आ सुरक्षा के ठीकेदार जनसेवक बनके सेवा में लाग गइल बाड़ें। ओकर सुफल-कुफल सभका सोझा बा। एह से एह सबके पहिले खेसारिए लेखा सोहात-बछात रहे। बाकिर एक चीज बा कि ई जेतना जल्दी उजिआला-उफनालें ओतने जल्दी कबरइबो करेलें। खेसारी के झाड़ मोट ना, लतरिआह होला जवना से लोग एकर नाम 'लतरी' चाहे 'लतारी' भी रखले बा। एक फूल बिख का रंग नीयन सिआह आ रूप बिर्हिनी जइसन लागेला। एकर ढेढ़ी-छीमी केराव के ढेढ़ी-छीमी नीयन बुझाला। जवना से बेबूझ वाला आदमी का मटर के भक हो जाला। बाकिर बात बुझाते उनका भकू लाग जाला।

हमनीं का पुरखा पुरनिआ लोग के ज्ञान किताबी कम आ अनुभव के जादा रहे। एह से ऊ लोग अपना अनुभव के पीढ़ी दर पीढ़ी साझा करत सावधान करे। हमहूं सुनले बात बतावऽतानी जे एकरा के खाए में ऊ लोग अपनहीं भर परहेजी ना रहे बल्कि अपना माल-मवेसिओ के खाए ना देवे। ओह लोग का जब कवनो उपाय ना रह जाए त माल मवेसी के चारा आ चुन्नी खातिर एकर उपयोग करे। घर में मूंग, मसूर, चना, मटर, बकला भा रहर के दाल ना रहला पर घटले एकर सेवक होखे। ई एतना बयाह मतलब रोग-बेआही के घर ह कि एकर असर जल्दिए पता चल जाला। एकरा खइला से आदमी के गठिया धर लेला। लकवा के बेमारी हो जाला। पांव फूल जाला। बात-बाई पकड़ेला। देह, दिल आ दिमाग तंत्रिका तंत्र के डिसार्डर भइला धीरे धीरे सुस्त होखे लागेला। अपंग होखे के खतरा बढ़ जाला। कान का नस पर अइसन असर होला कि सुनाई कम देवे लागेला। आँख के रोसनी धीरे-धीरे कम होखे लागेला। ई एतना ना तेलाह अनाज ह कि बेपरमान खइलऽ कि सरी-नरी खुलल। पेट फूल के नगाड़ा भइल। मतलब हजार सामत आ सकेला। एही से बंगला में एकर एगो नांव 'कसूर' भी ह। अंगरेज अपना भासा में एकरा के ' 'डॉगटूथ पी' (Dogtooth pea) कहेलें स। एकर वानस्पतिक नांव 'लेथाइरस सेटाइवस' ( Lathyrus Sativus) ह। मतलब एकरा से जिन सटलें तिन लथरइलें। काहे कि वैज्ञानिक लोग के अनुसार एकरा में ओ. ए. डी. ए. पी. ( वीटा एन आक्सील डाई अमिनो प्रोपियोनिक ) नांव के जहरीला एसिड पावल जाला। जवन कई गो बेमारी के जड़ ह। ई आदमी का तंत्रिका तंत्र के अइसन ध्वस्त कर देला कि कुछ दिन में नर्वे काम कइल छोड़ देला। एही चलते जब सन् उनइस सौ सात में सुखाड़ के बेरा मध्यप्रदेश के रीवा नरेश खेसारी का खेती पर रोक लगा देले रहस। सन् उनइस सौ एकसठ में भारत सरकार प्रतिबंध लगवले रहे। महाराष्ट्र सरकार खेसारी बोए वाला खेतिहर किसान लोग का खिलाफ कठोर कदम उठवले रहे। सरकारी अधिकारी खेत में बोअल किसान लोग के कुल्ह खेसारी के जजात जरवा देले रहस। ओह लोग के हर-हेंगा आ बैल ले जप्त हो गइल रहे। एह से ई बांचे आ बेरावे के चीज ह।

बाकिर आज एतना के सोचऽता। जवने आवे सोझा, उहे भकोसऽ ओझा। जवना के फल केहू एक ना, सउँसे समाज भुगतऽता। ई त तुरते उपराजल जा सकेला आ रहर के उपराजे में समय लागेला। आज लोग के नजर अपना भा समाज का स्वास्थ्य से जादे दाम-मुद्रा पर बा। एही से व्यापारी से छोट-बड़ दोकानदार ले सभे रहर में, चना के बेसन में, लड्डू सहित आउर-आउर मर-मिठाई में खेसारी के मिलावट करऽता। आरे जल्दबाजी का चक्कर में रहर ना बो के लालच में खेसारी बोआई त उहे नू पंथ पड़ी। लोग मरी त मरी। सरकार के खाद्य सुरक्षा अधिकारी जब ना तब अनाज के गोदाम पर, रहर के दाल मील पर, चना के बेसन मील पर, दालमोट आ बड़ी बनावे का मील पर खेसारी का मिलावट के लेके छापा मारत रहेलें। एगो न्यूज अखबार में पढ़ले रहीं जे कानपुर के दालमोट विक्रेता के घर पर छापा मार के मिलावट पकड़ाइल रहे। ओह विक्रेता सब के कोर्ट चालीस हजार से लेके दस हजार तक के जुर्माना आ छव छव महीना के जेल के सजा सुनवले रहे। बाकिर मनबढ़ू लोग मिलावट से परहेज कहाँ करऽता आ बेपारी आ अधिकारी लोग का मिलीभगत आ प्रशासन का ढ़ीलासीली से मिलावट के धंधा जोर सोर से जारी बा। जवना से अब ई बयाह आ रोग के घर खेसारियो रहर-चना के भावे बाजार में बिकाता, पूछाता आ पूजाता।

सबसे सोचे वाला बात ई बा कि होइबो ई खेसारी होइबो करेला खास क के पूर्वी बिहार आ पच्छिमी उत्तर प्रदेश का भोजपुरिया मैदानी इलाका में। आउर प्रदेश में बहुत कम पावल जाला। एही से एह इलाका में एकरा फेंटफांट के संभावना ढ़ेर होला आ लोगो का होला कि अपना जमीन आ जवार के चीज बा त फेंक ना नू दिआई। बाकिर लोग का सोचे के चाहीं कि रोगवो त अपना देहवे से पैदा होला त ओकरा के कहाँ नेह-प्रेम से आपन जान-मान के पोसल जाला। पराया औषधि के आपन बनाके उनका दुरदुरावल-भगावल जाना कि ना। मिलावट के कुफल देह, दिल आ दिमाग थोड़े भोगऽता, देसो भोगऽता। बड़का-बड़का फेरल चोर, उचक्का, दबंग, लूटेरा, ठग, धोखेबाज तरह-तरह के जोगाड़ भिराके, बहला-फुसला के सीधुआ जनता के लोभ लालच देखा के नेता आ सरकार बनके लूट रहल बाड़ें। अइसन मिलावट आज विद्यालय, संगीतालय, देवालय, औषधालय, सचिवालय, न्यायालय कहाँ नइखे रुकता? सभे हलकान बा। बाकिर ई मिलावटी आदमी भा अनाज जात, मजहब, भासा, इलाका सब का आड़ में रात-दिन सभका के बुरबक बना के जेकरा के ठग रहल बाड़ें ओकरे से पूजाइयो-पूछाइयो रहल बाड़ें। एह तरह से बबुआ भतीजा जी, '

ई बा घोर मिलावट के बगदल, बउराइल बहकल काल,
रहर कहाये लागल 'टुअर' जबसे ओकरा में फेंटाये लगलें खेसारी के दाल।
अउर गोल्ड के रोल में रोल्डगोल्ड से व्यापारी भइलें मालामाल।
चौबीस कैरेट के सोना का नीचे खसकल जमीन आ हाल भइल बेहाल।'
सम्प्रति:
डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट

मुखिया जी: उमेश कुमार राय

मोरी मईया जी

जा ए भकचोन्हर: डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'

डॉ. बलभद्र: साहित्य के प्रवीन अध्येता - विष्णुदेव तिवारी

भोजपुरी कहानी का आधुनिक काल (1990 के बाद से शुरु ...): एक अंश की झाँकी - विष्णुदेव तिवारी