भोजपुरी लोक के आलोक रामाज्ञा प्रसाद सिंह 'विकल' - डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'



रामाज्ञा प्रसाद सिंह 'विकल' के भोजपुरी भासा, संस्कृति, साहित्य आ समाज खातिर कइल एक एक सकारात्मक आ रचनात्मक सृजन-साधना अतुलनीय बा। 'विकल जी' के जीवन भोजपुरी भासा, संस्कृति, साहित्य आ समाज खातिर एगो कवि-साहित्यकार, शिक्षक आ सक्रिय सामाजिक-सांस्कृतिक सज्जन व्यक्तित्व के रूप में समर्पित रहल बा। अइसन ब्यक्तित्व का एक-एक धवल पक्ष के उजागर कइल भावी पीढ़ी के रचनात्मक काम करे खातिर जरूरी बा। ताकि ओकर रचनात्मक प्रेरक प्रभाव भोजपुरी समाज का हर पीढ़ी पर पड़े।एकरा अलावे ओकरा अपना भासा, संस्कृति, साहित्य आ समाज के बारे में बहुत कुछ जान-समुझ के खुद का प्रति गौरवबोधो होखे।

रामाज्ञा प्रसाद सिंह 'विकल' के ब्यक्तित्व जेतना बहुआयामी बा ओतने बिबिधता से भरल उनकर कृतित्व बा। उनका ब्यक्तित्व आ कृतित्व पर सम्यक् ढ़ंग से मूल्यांकन कइल जाई त ई महसूस होई कि उनकर पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि जीवन केतना सहज, सरल आ तरल लोकमंगलकारी संत जइसन सतत सक्रिय रहल बा। अइसे केहू के ब्यक्तित्व भा कृतित्व के बारीकी से जाने के होला त ओकर 'ओर' खोजे के होला। जइसे केहू सुइटर बीनेला त ओकरा में एक जगे 'ओर' के गिट्ठर होला। जब ले ऊ गिट्ठर ना मिले तबले सुइटर ना खोलाए। ओइसहीं मातृभूमि आ मातृभासा खातिर समर्पित विकल जी का ब्यक्तित्व आ ओकरा अनुगामी कृतित्व के मरम जाने खातिर उनका जीवन के ओहू प्रसंगन के जाने के होई जवन उनका के एह दिसाईं लागे खातिर प्रेरित, प्रोत्साहित आ बिकल कइलस। जवना के सम्यक् मूल्यांकन करत उनका से जुड़ल आ उनका के जानल प्रबुद्ध समाज खातिर जरूरी बा।

जब विकल जी अक्षरबोध खातिर गाँव का प्राथमिक विद्यालय में अपना आदि गुरु राजमुन्नी लाल आ कंचन भगत से शिक्षा-संस्कार पावत रहलें, ओही बालकाल में उनका नारायनी नदी में बाबा खेदन सिंह का सङे नहान-धोआन कइला के बाद नदी के किनारे बनल कुटिया में साधु-संतलोग से तुलसीदास के रामचरितमानस सुने के सौभाग्य मिलल रहे। उनकर बाबा उनका के बगल के गाँव डुमरी के जमुना सिंह, जिमदाहां मंदिर के पूजेरी पं. रघुनाथ तिवारी आदि से मानस, सिरी मद्भागवत, देवी भागवत, प्रेमसागर, सुखसागर आदि सुने खातिर ले जास। घरे रात के माई से केतने लोककथा-लोकगाथा सुने के मिले। जवन उनका भीतर एगो लोकानुरागी आ धार्मिक प्रवृत्ति के मनई के तइयार करत जात रहलें। बाकिर उनका भीतर मातृभासा भोजपुरी आ साहित्य के प्रति खास रूचि तब पैदा भइल जब उनकर नांव मैकडोनाल्ड उच्च विद्यालय, देवरिया, तरैया ( सारन ) के छठा बर्ग में लिखाइल आ भासा-साहित्य के शिक्षक बीरेंद्र प्रताप सिंह 'मधुकर' , देवता प्रसाद सिंह आ आचार्य लक्ष्मण त्रिपाठी आदि के सान्निध्य मिलल।

छठे-सातवाँ बर्ग में देवता प्रसाद सिंह शिक्षक से उनका एह बात के बारीक बोध हो गइल कि हमार मातृभासा भोजपुरी ह।

बर्ग छव-सात में जात-जात सुनो भाई कौवे की बात, काली-काली कू कू करती, पन्द्रह अगस्त यह आया है, आई आई छब्बीस जनवरी, रक्षा-बन्धन आदि हिन्दी कविता भा तुकबंदी के रचे आ सुनावे वाला विकल जी पहिले-पहिल भोजपुरी कविता कूहा आ फेर सोहनी के रचना कइलें। घर-गांव गंडक नदी के किनारे होखे के चलते कूहा के फइलाव आ खेतिहर परिवार के होखे का चलते रोपनी-सोहनी से लगाव उनका के कूहा आ सोहनी पर लिखे खातिर प्रेरित कइलस। बालावस्था के ई दूनों कविता सन् १९७२ ई. में मानसी प्रकासन, गर्दनीबाग, पटना से छपल उनका भोजपुरी कविता संग्रह कहिया ले बहुरी बिहान में संकलित बा। एकरा बाद सन् १९७३ ई. में कविता संग्रह बलिदानी के मोल आ सन् १९८९ ई. में छपल भोजपुरी मुक्तक संग्रह दाना मोती के के रूप में मातृभासा भोजपुरी में साहित्य-सृजन के जवन सिलसिला सुरू भइल ऊ आज तक अनवरत जारी बा। ओह कुल्ह साहित्यिक अवदानन के उलेख करे का पहिले उनका सामाजिक आ शैक्षिक जीवन के बिना जनले उनका ब्यक्तित्व के सांगोपांग नइखे जानल जा सकत।

सामान्य किसान परिवार में जनम। भोजपुरी संस्कृति के जीये वाला संयुक्त परिवार। मैट्रिक पास करते रोजी-रोजगार के चिंता सवार भइल आ गाँवे के एगो धनाढ्य बी. एल. सिंह का प. बंगाल वाला पेट्रोल पंप पर प्राइवेट नोकरी करे जाए के पड़ल। उहाँ मन ना रमल त फेर गाँवे वापस लौट अइलें। हवाई सेना आ जल सेना के प्रतियोगिता परीक्षा पास कइलें त जाए देवे खातिर मतारी तइयार ना भइली। एही अह-जह में विकल जी के नाम शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, बंगरा ( सारन ) के सत्र १९६५-६७ में लिखा गइल आ उनकर जीवन यात्रा शिक्षा जगत से जुड़ गइल। एह दरम्यान उनकर साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा जारी रहल। गाँव-जवार का साहित्यिक कार्यक्रम में सम्मिलित भइल, दसहरा, दिवाली, छठ आदि का अवसर पर होखे वाला नाटकन में भाग लिहल, गाँव में 'कला-कुंज' जइसन सांस्कृतिक संस्था के अस्थापना में जोगदान कइल, 'राणा प्रताप पुस्तकालय' के अस्थापना करके ओकरा के सुबेवस्थित चलावल आदि ओह यात्रा के उदाहरन बा।

विकल जी सन् १९७० ई. में जब राजकीय मध्य विद्यालय, रामगढ़ा, दरौंदा ( सारन ) में एगो शिक्षक के रूप में बहाल हो के गइलें त कुछे दिन में उनका शैक्षिक आ साहित्यिक ब्यक्तित्व के चर्चा ओह जवार में होखे लागल आ इनकर उठ-बइठ ओह जवार के कवि-साहित्यकार ब्रजकिशोर प्रसाद पंकज, डॉ. नरेन्द्र कुमार द्विवेदी, दिवाकर द्विवेदी, कलानंद पाण्डेय राकेश, फागु पाण्डेय, जीतन राम आदि के बीच होखे लागल। एकरा में ब्रजकिशोर प्रसाद पंकज बिहार सचिवालय में कार्यरत रहलें आ उनकर पटना आ बिहार के साहित्यकारन के बीच काफी सम्मान रहे। पंकज जी का माध्यम से विकल के जुड़ाव हिन्दी, भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि के कवि ब्रजकिशोर प्रसाद वर्मा, सत्यनारायण, गोपीवल्लभ सहाय, उमेशचंद्र श्रीवास्तव, मैथिली वल्लभ परिमल आदि से बढ़ल आ बिहार का साहित्यिक आयोजनन में जाये के सिलसिला सुरू हो गइल।

एने सारन जिला के शिक्षो जगत में उनका शैक्षिक गतिविधि के चर्चा आम हो गइल रहे। तब के सारन जिला के शिक्षा अधीक्षक हरिहर नाथ चौबे के देखरेख आ सुझाव-सलाह पर जिला का हर विद्यालयन का विद्यार्थियन में सामाजिक- सांस्कृतिक चेतना जगावे खातिर एगो शैक्षिक अभियान चलल। विकल जी का अगुआई में मातृभासा भोजपुरी के माध्यम से कथा, कविता - कहानी आ निबंध लेखन के अलावे, भासन आ अंत्याक्षरी आदि प्रतियोगिता के जबरदस्त अभियान चलल। एही अभियान के निमित्त ई सन् १९७७ ई. में कई गो कविता आ आलेख का संगे संगे दूगो ऐतिहासिक नाटक ' अछरंग ' आ 'आखिरी पर्व ' लिखलें आ जगे-जगे मंचन करववलें। शिक्षा विभाग एकरा खातिर इनका के कई जगह सम्मानितो कइलस। सन् १९७७ ई. में फेर से रामगढ़ा विद्यालय के बदली के बाद जब सन् १९७९ ई. में इनकर बदली मसरक प्रखंड का इस्कूल में भइल त इहाँ साहित्यकार शिक्षक मंडली के भुवनेश्वर सिंह, लाल बहादुर पाण्डेय, रामदेव मिश्र राही, ललन पाण्डेय का आनंद के सीमा ना रहल।

अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के मोतिहारी अधिवेशन में पं. गणेश चौबे जी से प्रेरना पाके विकल जी भोजपुरी लोक संस्कृति आ लोक साहित्य पर लेखन, संकलन आ सम्पादन- प्रकाशन के काम में जे लगलें ऊ आजुओ जारी बा। जवना के फल बा कि आज विकल जी के भोजपुरी लोक संस्कृति आ साहित्य से जुड़ल अनेक सोध आलेख आ सामग्री गुरु गंभीर ग्रंथ के रूप में भोजपुरी, हिन्दी आ आउर भारतीय भासा-भासी जन के बीच मौजूद बा; जइसे- तेरह तरेंगन, बालगीत के गाँव, प्रदूषण मुक्ति संग्राम और तुलसी के राम, लोक लहर, पहेली के पाँव, रस-त्रिवेणी, अरण्य-यात्रा, लोक देवता कारिख नंदलाल, पावन पैगाम : राष्ट्र के नाम, कौमी एकता के तान मानस और कुरान आदि।

अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के मोतिहारी अधिवेशन में ही पाण्डेय कपिल जी विकल जी से निहोरा करत कहलें कि 'सारन जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन' भोजपुरी के पहिलका साहित्यिक संस्था ह। जवना के अधिवेशन सन् १९७१ के बाद अबहीं ले ना हो सकल। सारन जिला के बँटवरो हो गइल। विकल जी, तूं ही लगबऽ त ओकर तेरहवां अधिवेशन सारन जिला में कहीं हो सकेला। विकल जी का प्रयास आ प्रयत्न से ओकर तेरहवाँ अधिवेशन अमनौर ( सारन ) में जबरदस्त ढ़ंग से सम्पन्न भइल। पाण्डेय कपिल जी अध्यक्ष भइलें आ वीरेन्द्र नारायण पाण्डेय जी महामंत्री। अधिवेशन के उद्घाटन कइलें राष्ट्रीय गीत 'बटोहिया' के राष्ट्रीय कवि रघुवीर नारायण जी के सपूत आ भोजपुरी के पहिले महाकाव्यकार हरेन्द्र देव नारायण जी आ कवि सम्मेलन के अध्यक्षता कइलें भोजपुरी परिवार, पटना के सर्बेसर्बा अउर अँजोर पत्रिका के सम्पादक पाण्डेय नर्मदेश्वर सहाय जी। चउदहवों अधिवेशन सन् १९८२ ई. में अमनौरे में सम्पन्न भइल। सारन जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के तेरहवाँ अधिवेशन अतना ना सफल भइल कि ओही जगह पर अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के तीन दिना सातवाँ अधिवेशन ठना गइल। जवना के बारे में आजुओ कहल जाला- 'ना भूतो ना भविष्यति ।' भोजपुरी के ओइसन साहित्यिक कुंभ फेर ना लागल।

सारन प्रमंडल का हर प्रखंड आ गाँव तक भोजपुरी लेखन आ आंदोलन के पहुँचावे का उदेस से ०४ जून, १९८४ के ढ़ोढ़स्थान ( सारन ) में भोजपुरी सेवी साहित्यकार आ कलाकार लोग एगो साहित्यिक संस्था ' भोजपुरी भारती ' के गठन कइल। विकल जी एगो संस्थापक सदस्य के रूप में ओह संस्था के माध्यम से भोजपुरी भासा आ साहित्य के अलख गाँव - गाँव में जगावे के सफल प्रयास कइलें। संस्था के एगो सफल महामंत्री का दायित्व के पूरा करत सभका सहजोग आ अपना सक्रियता के बल पर एकर पहिलका अधिवेशन २२ नवम्बर, १९८६ में अवध उच्च विद्यालय, चैनपुर-चरिहारा, मसरख ( सारन ) में सम्पन्न करवलें। विद्यालय के प्रधानाचार्य आ भोजपुरी-हिन्दी के कवि आ नाटककार रामजीवन सिंह जीवन का कंधा से कंधा मिला के आयोजन के राष्ट्रीय अस्तर के स्वरूप देवे में सफलता पवलें। उनका के ०२ मई, २००४ के सर्बसम्मति से सारन जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री बनावल गइल। जवना पद पर ०५ मार्च, २००९ तक रह के ऊ ओह संस्था का जरिए भोजपुरी साहित्य के सेवा में रत रहलें। एह तरह से भोजपुरी लेखन आ आंदोलन के दिखाईं विकल जी के जोगदान अनुकरनीय बा।

विकल जी संपादन का क्षेत्र में भी बहुत ठोस काम कइलें बारन। 'भोजपुरी-भारती' के अलावे भोजपुरी के बाल पत्रिका 'कलेवा' के संपादन कइलें। उगेन, भोर, रचनात्मक बातचीत आदि भोजपुरी पत्रिका का संपादन आ प्रकाशन में आपन बहुमूल्य जोगदान दिहलें। मौलिक साहित्य सृजन के क्षेत्र में भोजपुरी के सिद्ध कवि आ उपन्यासकार के रूप में विकल जी के काब्य संग्रह - कहिया ले बहुरी बिहान, बलिदानी के मोल, दाना मोती के, गीत सर्वशिक्षा के, आवाहन, उमेद के धागा, विकल मुक्तकावली आदि का संगहीं डॉ. प्रभुनाथ सिंह के जीवनी आ पौराणिक उपन्यास ' विश्वामित्र के आत्मकथा ' आदि जइसन कई दर्जन बहुमूल्य साहित्यिक अवदान उनका के भोजपुरी का साहित्यकारन का अनमोल लड़ी के बहुमूल्य कड़ी बना देता।
सम्प्रति:
डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

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