भोजपुरी के तुलसी आ तुलसी के भोजपुरी - डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'



अबकी 'तुलसी जयंती' १५ अगस्त के पड़ गइल रहे। हम सोसल मीडिया का फेसबुक के जरिए उनका के राम भक्ति धारा के पहिले भोजपुरी भक्त कबि के रूप में इयाद करत नमन कइनीं। बहुत अध्येता बिद्वान लोग नमन करत आपन सहमति देत बिचार राखल त कुछ भोजपुरिये साहित्य सेवी के बिचार आइल कि का भोजपुरी में कबि-साहित्यकार के अकाल हो गइल कि एगो अवधी का कबि के भोजपुरी के कबि बतावल जा रहल बा? कुछ बिद्वान लोग एह पर हमरा से आपन बिचार राखे खातिर दबाव बनावल कि अब अपने बताईं कि रउरा गोस्वामी तुलसीदास जी के भोजपुरी के भक्त कबि काहे लिखनीं। तब हमरा बोलल आ लिखल जरूरी बुझाइल आ रउरा लोग के सोझा अपना अध्ययन-अनुसंधान से बनल गोस्वामी तुलसीदास जी से जुड़ल समझ आ सोच साझा करे खातिर आवे के पड़ल बा।

एक त गोस्वामी तुलसीदास जी खुद अपना जनम अस्थान, परिवार आ गुरु आदि के बिसय में खुलके कुछ नइखन लिखले। हँ अपना काब्य ग्रंथन में जहाँ- तहाँ कुछ संकेत भर दिहले बाड़न। एकरा बावजूद उनका जनम अस्थान, परिवार, गुरु आदि के बारे में अब तक कम माथापच्ची नइखे भइल। जवना पर हम बाद में आएब। बाकिर जहाँ तक उनका रचना के भासा के बात बा त ओकरा में संस्कृत, भोजपुरी , अवधी, ब्रजभासा, कौरवी, अरबी-फारसी आदि का सब्दन, क्रियापदन, परसर्गन, कहाउत-मुहाबरन के धड़ल्ले से बेवहार भइल बा। उनकर सहज,सरल आ सुललित संस्कृत त निछक्का भोजपुरियो जन खातिर सहजे सूझे जुगुत बा। बाकिर गोस्वामी तुलसीदास जी अपना रचना के भासा कहीं अवधी, भोजपुरी भा ब्रजभासा नइखन लिखले। जइसे कबीरदास लिखलें- ' बोली हमार पूरब के, हमरा लखे ना कोई, हमरा के उहे लखी जे धूर पूरब के होई।' अब एकरा के जेतना सधुकड़ी भा पचमेली लोग बना लेवे। ऊ इहो लिखलें कि ' संस्कीरत ह कूप जल, भाखा बहत नीर।' जायसियो लिखलें कि ' आदि अंत जस काथा अहै, लिखि भाखा चउपाई कहे।' ओइसहीं बेर बेर गोस्वामी तुलसीदास जी लिखलें- ' भाखाबद्ध करब मैं सोई, मोरे मन प्रबोध जेहि होई।' चाहे ' भाखा भनति मोर मति थोरी।' चाहे 'भाखा निबद्ध मति मंजुल।' चाहे ' तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाखा।' चाहे ' होई न मृखा देवरिसि भाखा। उमा सो बचनु हिरदय धरि राखा।'

तब ' मैं ' आ ' मोर ' भोजपुरी में खूब चलत रहे। कबीरोदास लिखलें- राम मोर पीव मै राम के बहुरिया।' अब भोजपुरी 'मैं' के छोड़ देलस बाकिर मैं से बनल ' मोर ' गीतन में आजुओ चलऽता - ' पीआ मोर गइले रामा, पूरबी बनिजिया।' गीता प्रेस गोरखपुर वाला ना, मानस के पुरनका प्रकासन सब में देखब सभे त भाखा भेंटाईं। एने भाखा के भासा भेंटाता। बाकिर राखा के रासा करे में हिन्दी का हिमायती लोग के पसेना छूटे लागऽता। खैर, हमरा कहे के ई बा उनइसवीं सदी ले भाखा भा भासा कहके ढ़ेर साहित्य रचाइल आ सहेजाइल। जवना खातिर धिरावत फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग में अधिकारी प्रोफेसर गिलक्राइस्ट अपना भाखा मुंसी सदल मिसिर आ लल्लू लाल के ' भाखा ' छोड़ के कौरवी आ बांगरू भासा आधारित खड़ी बोली में लिखे आ ओही भासा - रूप के परचार करे के कहले रहलें।

केतनो बड़ कबि होखस। ऊ एके बेर महाकाब्य ना लिख देलन। ऊ पहिले फुटकर रचना करेलन आ जब कलम आ ग्यान बरिआर हो जाला त केतने खंड काब्य आ महाकाब्य सिरिज देलन। ओइसहीं गोस्वामी तुलसीदास जी पहिले फुटकरे कबिता संग्रह आ गीत संग्रह लिखलें; जइसे- बैराग्य संदीपनी, दोहावली, गीतावली, रामललानहछू, जानकी मंगल, पार्बती मंगल, बरवै रामायन, हनुमान चालीसा आदि आ ग्यान आ लेखनी बरिआइल त लिख दिहलें- राम चरित मानस, विनय पत्रिका, श्रीकृष्ण गीतावली, हनुमान बाहुक आदि। गोस्वामी तुलसीदास जी का रचना भासा पर बात करे खातिर उनका सुरुआती रचनन के भासा पर बिचार पहिले करे के पड़ी। फेर मानस, विनय पत्रिका आ आउरो रचना के भासा पर जम के बतकही होई। एकरा पहिले भोजपुरी आ अवधी का तात्विक भेदन पर बिचार करे के होई। ओह सब पर हम बात करब। अध्येता बिद्वान लोग का संगे संगे तुलसीदास का दोहा, छुपाई, सोरठा, रोला, हरिगीतिका, सबैया, सोहर, बरवै, तोमर आदि के बानगियो रखाई। बाकिर फिलहाल हम तुलसिये दास जी का दोहा-चउपाई के जरिए उनका जनम अस्थान, गुरु अस्थान आ परिवार आदि के पड़ताल करे के उतजोग करब।

गोस्वामी तुलसीदास जी का मानस में राम के चरित बचपने से जगह बनवले रहे। उनका अनुसार सिव-संभु अपना उमा के आ फेर काग जइसन तेज भुसुंडि मतलब दिमाग वाला के राम-भक्ति के अधिकारी के रूप में चीन्ह के राम के चरित सुनवलें, उहे चरित कथा भरद्वाज मुनि जागबल्क मुनि से सुनके अपना मानस में बइठवलें आ ओइसहीं हाथ पर परत्यक्ष राखल आँवरा जइसन केतने लोग सुनल, जानल आ जनावत आइल जवना के उनकर ( तुलसीदास के ) के गुरु स्वामी रामानंद के सुयोग्य सिस्य संस्कृत के अगाध बिद्वान नरहर्यानंद यानि नरहरि दास, जे बहुत पहिले 'अध्यात्म रामायण' लिख चुकल रहलें ( मानस संदर्भ , पन्ना -५६२ ) , से बालपन के अति अचेतावस्था में बार-बार मतलब कई-कई बार सुनके अपना मति-गति के अनुसार समुझल-बुझल रहस,तवना के भाखा में बन्हले मतलब उतरले रहस ताकि अपना मन के परबोध सकस। ऊ कई जगह अपना गुरु नरहरि दास के बंदना करत नजर आवत बारन- ' बंदऊ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि।' उनका खातिर एक तरह से नर रूप में हरि ही भेंटा गइल रहस जे लरिकाइयें में परिवार आ गाँव से उपेक्षित 'रमबोलवा' भा 'रामकिंकर' के अपना सनेह आ ग्यान से नहवावल सुरु कर देले रहस। परिवार आ गाँव के उपेक्षा के असर तुलसीदास पर एतना रहे कि ऊ लिखलें - ' तुलसी तहाँ न जाइए जहाँ जनम के गाँव।'

अब आईं असली बात पर कि बालक तुलसी भा रमबोलवा भा रामकिंकर अपना गुरु नरहरि दास से राम कथा कहँवा सुनले रहस। उनका अनुसार, ' मैं पुनि निज गुरु से सुनी, कथा सो सुकरखेत। समुझी नहिं तसि बालपन, तब अति रहऊँ अचेत।।' राम कथा सुनत समय तस लरिकाईं रहे कि समुझीं जे अचेतावस्था रहे। ओहू अचेतावस्था में गुरु जी बेर बेर कथा सुनाके मानस में बइठा देले रहस - ' तदपि कहि गुरु बारहिं बारा। समुझि परि कछु मति अनुसारा।। भासाबद्ध करबि मैं साई। मोरे मन प्रबोध जेहि होई।।'

ई कुल्ह परकरन सूकरखेत के ह। अब असली मरम एही सूकरखेत में छुपल बा। जवन तुलसीदास का जीवन-परिचय के अपना मन माफिक गढ़े वाला बिद्वान के माथा चकरा देला। एही सूकरखेत में तुलसीदास बचपन में अपना गुरु से राम कथा सुनले रहस। मतलब उनकर गाँव गुरु का एही कथा अस्थान के इर्द-गिर्द रहे। जदि एह सूकरखेत के जानकारी हो जाए त बहुत कुछ तय हो जाई। एह सूकरखेत के लेके बिद्वान लोग के अलग-अलग मत बा। केहू ओकरा के बाँदा जिला के राजापुर, केहू एटा जिला के सोरों, केहू गोंडा के पसका, केहू अजोध्या, केहू प्रयाग के राजापुर, केहू चित्रकूट, केहू सीतापुर जिला के रामपुर, केहू बस्ती जिला के ग्राममाना, केहू बरेली, बिहार के हाजीपुर, केहू शाहाबाद के राजापुर, केहू बलिया आदि के सूकरखेत बतावे के परयास कइले बा। बाकिर सूर्य प्रसाद दीक्षित अपना आलेख ' तुलसी जन्मस्थली की खोज ' में प्रायः हर केहू का मत के तार्किक ढंग से खंडन करत सोरों के पक्ष में आपन बिचार देवे के दूगो आधार गिनवले बारन। पहिला कि 'नंददास तुलसी के भाई रहलें। उनकर बंसज इहँवे रहत रहलें, एह से तुलसियो इहँवे पैदा भइल होइहें आ दोसर कि तुलसीदास के ससुरार बदरिया इहँवे बा। एह से तुलसीदास के गाँव एकरे अगल बगल में रहल होई।'( तुलसीदास, सं. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पन्ना- १२-१९)। बाकिर सोरों के पक्ष में पुरहर परमान ना मिले के चलते बहुते बिद्वान सोरों के जनम अस्थान आ सूकरखेत माने से इंकार कर गइल बारन। आचार्य चंद्रबली पाण्डेय, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. माता प्रसाद गुप्त आदि सभे परमान के अभाव में सोरों के सूकरखेत आ तुलसी के जनम अस्थान माने से इंकार कर दिहल। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपना ' हिन्दी साहित्य का इतिहास ' में साफ साफ लिखलें कि ' अनेक प्रकार के कल्पित परमान सोरों के जनम अस्थान साबित करे खातिर तइयार कइल गइल। सब उपद्रव के जड़ बा सूकरखेत, जवन भ्रम से सोरों समझ लिहल गइल।'( पन्ना- १२९)।

जब संवत् १८६६ में बाँदा जिला के गजेटियर लिखाइल त ओकरा में जनश्रुति के आधार पर ई लिखल गइल कि तुलसीदास सोरों से आके राजापुर का जंगल में तप कइलें। एह मत के खंडन करत सूर्य प्रसाद दीक्षित के कथन बा कि एक त गजेटियर जनश्रुति पर निर्भर बा, एह से संदिग्ध बा आ दोसरे लोग तर्क देला कि तुलसीदास एह गाँव के बसवलें त जवना गाँव के तुलसीदास बसवलें ऊ उनकर जनम भूमि कइसे हो सकेला? राजापुर में तुलसी के बंसज/उत्तराधिकारी लोग के मिलल माफीनामा में देखावल जाला। बाकिर उनका पूरखन से जुड़ल कवनो माफीनामा इहाँ नइखे।' कुलदीप नारायण राय ' झड़प' अपना अनुसंधानपरक आलेख ' गोस्वामी तुलसीदास के गुरुभूमि : सूकरखेत ' में साफ साफ फरिआ के बतवले बारन कि गजेटियर ऐतिहासिक परमान ना मानल जाला। ओकर लेखक सूकरखेत के सोरों समझ के भूल कइले बाड़े। एटा गजेटियर से ओके कथन के पुष्टि नइखे होत।'( स्मारिका- अ. भा. भो. सा. स., सिवान अधिवेशन, पन्ना-५२)।

कुलदीप नारायण राय ' झड़प ' बहुत प्रकार के परमान देत दावा का संगे ई साबित कइले बारन कि ' वास्तव में तुलसी के सूकरखेत बलिया आ सिवान जिला के सीमा पर सरयू तट स्थित ' सुअरहा ' ह, जवना के ब्युत्पत्ति साफे ' सूकरखेत ' से भइल बा। ए घरी सुअरहा गाँव सरयू का ढाही से नदी के दक्खिन पार आ गइल बा। पहिले ई उत्तर पार सारन जिला में रहे। एकर कुछ स्मृतिचिन्ह अबहीं सारन ( अब सिवान ) जिला स्थित गभिरार गाँव में बा। उहें ऊ महावटवृक्ष बा, जवना के नीचे बेदी बना के भगवान बराह ( सूकर ) के पूजा कइल जात रहे। ऊ आजो पूज्य बा। ओकर पतई तूरल भा कवनो प्रकार के क्षति पहुंचावल बर्जित बा।' ( उहे स्मारिका, पन्ना - ५३)। आगे ' झड़प जी ' के एक- एक परमान प्रस्तुत कइल जाई। फिलहाल एह ब्यापक क्षेत्र ( खेत ) के बारे में बिचार कइल जरूरी बा। एह क्षेत्र के अगल-बगल होके सरजुग, सुरसरि (गंगा) आ सोन नदी के बहाव बा। नदी में कटाव आ ढाही पड़त रहेला। कबो कवनो नदी दूर चल जाले कबो कवनो नदी पास आ जाले। गोस्वामी तुलसीदास मानस में एह तीनों नदी के उल्लेख करत एह क्षेत्र के प्रयाग अइसन पावन बतवले बारन - ' राम भगति सुरसरितहिं जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई।। सानुज राम समर जस पावन। मिलऊ महानद सोन सुहावन।।'(मानस पन्ना-४१)। इहाँ तुलसीदास सुरसरि मतलब गंगा नदी के राम भगति, सरजुग नदी के सुकीरति आ महानद सोन के राम के अनुज लछुमन जइसन समर बीच पावन बतावत तीनों के मिलन अस्थान के अति सुहावन बता के अपना जनम आ गुरु अस्थान के प्रति पावन भाव ब्यक्त कइले बारन। जइसे आरा, बलिया आ छपरा तीनों जिला एक दोसरा से मिलेला ओइसहीं एह तीनों नदियन के मिलन आ सम्बन्ध एह तीनों जिला से बा। उनका जीवन के अधिकाधिक समय एह जवार मतलब सूकरखेत के अलावे कासी, चित्रकूट, प्रयाग अजोध्या आदि में बीते के परमान उनका काब्य रचनन में मिलऽता।

अब इहाँ से सिवान, बलिया आ भोजपुर के मिलन अस्थल आ सरजुग तट के आसपास मिलल कई साक्ष्यन के जरिए तुलसीदास के जनम अस्थान आ गुरु नरहरि दास के सूकरखेत से जुड़ल तथ्यन पर 'झड़प' जी के हवाले से बात राखल जाई, एकरा संगे संगे तुलसीदास का काब्य रचनन में प्रयुक्त एह क्षेत्र का एक एक भोजपुरी के सब्दन, कहाउतन, मुहावरन आदि के भी चर्चा होत चली, जवना के प्रयोग अवध क्षेत्र में ना के बरोबर पावल जाला।

गोस्वामी तुलसीदास के बतावल सूकरखेत के बलिया ( उत्तर प्रदेश ) आ सारन-सिवान ( बिहार ) जिला के सीमा पर सरयू तट स्थित ' सुअरहा ' गाँव आ ओकरा बगल के गभिरार गाँव ( सिवान जिला ) के महावट वृक्ष अउर उहाँ परम्परा से होत आवत भगवान बराह ( सूकर ) का पूजा के चर्चा करत ओकरे कुछ दक्खिन हट के बहुते पुरान पीपर का गाछ के लगे बनल ' रतना ' के अस्थान तुलसीदास के पत्नी रत्नावली के इयाद करावऽता। अब ऊ अस्थान ' रतना बाबा ' के अस्थान कहाला।

गभिरार का ओह महावट आ पीपर के बीच बहुत पुरान-पुरान गाछ-बिरीछ बारें स। राम जी, सिव जी आ हनुमान जी के नाम से पुरान-पुरान चबूतरा बारें स। ओकरा से कुछ दूर ईसान कोन पर ' रामकिंकर दास के मठिया ' होखे के उल्लेख साबिक सर्बे ( पुरान बन्दोबस्त ) में मिलेला। झड़प जी गोसाईं जी के सिस्य आ ' प्रेम रामायण ' के लिखनिहार राम द्विवेदी के हवाले से अपना बयान के सही साबित करत लिखले बारन कि द्विवेदी जी ' प्रेम रामायण ' में तुलसीदास जी के नाम तुलसीदास ना लिख के

' रामकिंकरे ' लिखले बारन आ तुलसियो दास जी विनय पत्रिका सहित अपना कई पोथी में जगह-जगह पर अपना के ' रामकिंकर ' लिखले बारन। झड़प जी ' मानस-मयूख, बरिस-१, प्रकास-४, पन्ना-४१९-४२० के हवाले से अपना पुस्तक ' गोस्वामी तुलसीदास : जीवनवृत्त और व्यक्तित्व ' पन्ना - ३७८-३७९ में एह तथ्य के लिखले बारन कि साइत तुलसीदास के गुरु जी उनका के 'रामकिंकरे' कहके संबोधित करत होइहें।

सुअरहा के अगल-बगल तुलसी छपरा, हुलासगढ़ ( हुलसीगढ़ ), नरहन ( नरहरि दास के नाम पर ), गोसाईंपुर, ककर घाट ( रामकिंकर घाट ), ककरकुंडा ( रामकिंकर कुंड ) आदि जगह के नाम बहुत कुछ कह रहल बा। झड़प जी ' गौतम चंद्रिका ' के हवाले से कहत बारन कि सूकरखेत में घाघरी नदी दू धारा में होके सरयू में मिलत रहे आ ओ तरह से जवन भूमि टापू नियर बनि गइल रहे, उहे संगम-भूमि सूकरखेत कहाय, जइसे -

' सरयू अपर घाघरी दोऊ। संगम तीर्थराज सम सोऊ।।'

आजुओ एह चउपाई का कसउटी पर सिवान का गभिरार गाँव के परखल जा सकेला। सिवान होके बहत नदी के सूरी ( सुअरी ), बान गंगा आ दाहा कहल जाला। छितौली- चैनपुर स्टेट के पुरान कागज - पतर पर एकर नाम ऊपर के चउपाई वाला ' घाघरी ' ही बा। ए घरी ई नदी ताजपुर का लगे सरजुग में मिलत बा, बाकिर पहिले ई गभिरार में मिलत रहे। पच्छिमी मुहाना पर बरवा नवादा ( बराह नौधाम ) आ पूरबी मुहाना पर कचनार ( कच्छनार ) बा। मुहाना अब नारा के रूप में रह गइल बारें स आ नदी के पुरान पेटा निखती से टारी ले कंसाड़ ( चँवर ) बन गइल बा काहे कि अंगरेज राज में पानी के निकास आ सिंचाई के हिसाब से घाघरी के धारा दक्खिन से पूरब के ओर मोड़ दिहल गइल जइसन कि ' सारन जिला दर्पण ' पन्ना २३ पर गदाधर प्रसाद अम्बष्ट के लेख बा - ' सन् १८८१ में नहर निकाल के दाहा, मही, धनै, आ घोघरी एह चार धारा सबमें मिलावल गइल रहे आ एह तरह से नदियन के रास्ता बदल दिहल रहे।'

अपना आलेख में झड़प एहू तथ्य के उल्लेख कइले बारन कि सरजुग तट के सिवान जिला वाला गभिरार गाँव ओह महाबराहबट बिरीछ वाला अस्थान से लगभग एक मील उत्तर नेवारी नाम के जगह बा, जहाँ नरहरि दास का परम्परा के सांडिल्यगोत्रीय बराह्मन बसल बारें। नरहरि दास जी के गिनती स्वामी रामानंद के बारह प्रधान सिस्यन में कइल गइल बा। ----- उनकर जनम बइसाख सुक्ल तीज ( अक्षय तृतीया ) के भइल रहे, जवना का इयाद में गभिरार - नेवारी में हाँ ले उत्सव मेला मनावल जात रहल ह।

एगो आउर जनश्रुति के हवाले से झड़प जी के कहनाम बा कि प्रसिद्ध कान्यकुब्जाधिपति राजा महेन्द्र पाल जब बंगाल, बिहार आ नेपाल के जीतलें त ओह उपलक्ष्य में सिवान जिला में एगो बड़का पोखरा खोनववलें, जवन मेंहदार के नाम से प्रसिद्ध बा। उनकर बापो राजा ' निर्भयराज भोज ' बहुते प्रतापी रहलें। ऊ लोग जगदोद्धारक बराह अवतार के उपासक रहे। ओ लोग का सिक्का पर एक ओर ' श्रीमदादिवराह ' लिखल बा आ दोसरा ओर पृथ्वी के उद्धार करत भगवान बराह के मूर्ति बनावल बा। राजा महेन्द्र पाल सरजुग का तट पर दुर्ग बनववले आ ओही के निगिचा भगवान बराह के मूर्ति स्थापित कराके ओ अस्थान के नाम सूकरखेत धइलें। जवना के चर्चा गोस्वामी तुलसीदास जी अपना राम चरित मानस का बालकांड में कइले बारन। नदी का ढाही से आज ना ऊ दुर्ग बा आ ना ऊ बराह मंदिर बा, बाकिर ओ अस्थान के इयाद में ' कोटवा-महेंदरा ' आ ' सुअरहा ' गाँव के नाम आजो जीअता। अनेक परमान के आधार पर झड़प जी ई साबित कइले बारन कि ' गोस्वामी तुलसीदास के जनम भूमि हरदी के लगे बलिया- भोजपुर में गंगा तट पर रहे। ऊ जगह सुअरहा ( सूकरखेत ) से १४-१५ मील दक्खिन बा। एह से उनका खातिर लरिकाईं का अचेतावस्था में पसका आ सोरों गइल संभव ना रहे, बाकी कथित सूकरखेत ( सुअरहा ) गइल संभव रहे।' एह तरह से गोस्वामी तुलसीदास जी के जनम अस्थान हरदी के लगे बलिया-भोजपुर के गंगा तट पर रहे आ गुरु अस्थान सिवान का गभिरार आ ओकरा से सटले ' सुअरहा ' (सूकरखेत) रहे। एही से गोस्वामी जी अपना चउपाई में गंगा, सरजुग आ सोन नदी के मिलान अस्थान के अपना खातिर तीरथ राज प्रयाग के समान पावन बतवले बारन। जवना के उल्लेख ऊपर हो चुकल बा।

गोस्वामी तुलसीदास जी अपना जीवन परिचय के रूप में अपने कुछ खास नइखन लिखले। उनका से अपना रचनन में कहीं-कहीं खुद दयनीय दसा, हतास-निरास अवस्था आ लरिकाईं में परिवार भा गाँव से मिलल से मिलल अनादर आ उपहास के चाहे-अनचाहे चर्चा भावुकता बस लिखा गइल बा। डॉ. राम कुमार वर्मा अपना पोथी ' हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास में ठीके लिखले बारन कि

' उनका ( तुलसीदास के ) जदि आत्मग्लानि ना होइत त साइत ऊ अपना बारे में एतनो ना लिखितें।'

( पन्ना-४८४)। बाकिर वर्मा जी तुलसीदास के बारे में जानकारी का स्रोतन के तीन कोटि में रखले बारन। एगो अन्तर्साक्ष्य, मतलब - तुलसीदास जी का रचनन में उनका माई-बाप, गुरु, गुरु अस्थान, लरिकाईं के दयनीय दसा, कुल जाति, घर-गिरहस्ती, बैराग-पर्यटन, रचना रचे के सिरी गनेस के तिथि, बुढ़ारी आ रोग-बेआधी आदि से जुड़ल जानकारी, दोसर बाह्य साक्ष्य आ तीसर जनश्रुति के रूप में लोक मानस में बइठल उनका जीवन से जुड़ल कथा कहानी। जनश्रुति के रूप में जन मानस में ब्यापल जानकारी के आधार एक तरह से बाह्य साक्ष्य, मतलब तुलसीदास के समकालीन भा उनका बादे कुछ कवि-साहित्यकार लोग के लिखल जानकारी बा। जवना में कई तरह के विरोधाभास नजर आवेला। एकरा बावजूद ओकरा पर विचार कइल जरूरी बा। एह से जनश्रुति आ बाह्य साक्ष्य के पड़ताल पहिले कर लिआव। फेर उनका रचनन में भेंटाइल जानकारी पर बात कइल जाई।

गोस्वामी तुलसीदास के बारे में जनश्रुति बा कि उनकर जनम उत्तर प्रदेश का बाँदा जिला के राजापुर गाँव के दम्पत्ति सरजुगपारिन ब्राह्मन आत्मा राम दूबे आ हुलसी के घर संवत् १५५४ का सावन अँजोरिया सतमी के अभुक्त मूल नक्षत्र में बारह महीना का गर्भावस्था के बाद मुँह में बतीसो दाँत लिहले एगो देखनउक बालक के रूप में भइल। जवन जनम के समय रोअल ना, बल्कि राम बोलल। मतारी सहित पूरे परिवार का ई लरिका अपसगुन आ अमंगलकारी बुझाइल आ मतारी हुलसी ओह लरिका के अपना दासी चुनिया के हवाले क के ओकरा ससुरार भेज दिहली। अगिले दिन मतारी संसार से विदा हो गइली। राम बोले का चलते तुलसीदास के सभे रमबोलवा कहे। रमबोलवा के रूप में ऊ पाँच साल के भइलें त पाले-पोसे वाली चुनियो के देहांत हो गइल। एकरा बाद रमबोलवा के दुर्दिन चालू भइल। परिवार आ गाँव सभे अमंगल-अपसगुन मानके अनादर आ उपहास करे। एक दिन नरहर्यानंद साधु के एह रमबोलवा पर नजर पड़ल आ ऊ उनका के अपना संगे राख के संवत् १५६१ के माघ अँगोरिया पंचमी का सुक के जनेऊ संस्कार कइलें। राम-मंत्र के दीक्षा दिहलें। सूकरखेत में राम का चरित के कथा सुना-सुना के उनका मानस में बइठवलें। फेर कासी ले जाके सेससनातन जी किहाँ आगे के बिद्या पावे के बेवस्था कइलें। उहाँ ऊ कुल्ह बेद-बेदांग के अध्ययन कइलें। एही बीच उनका अपना बाबूजी का मरे के खबर मिलल आ ऊ गांवे आके बाबूजी के सराध संस्कार कइलें आ गाँव का लोग के गुरु नरहरि दास से सुनल राम चरित सुनवलें आ सभका मानस में बइठवलें।

संवत् १५८३ का जेठ अँजोरिया तेरस का बिअफे के उनकर बदरिआ गाँव के भारद्वाज गोत्र के पंडित दीनबंधु पाठक के बेटी रत्नावली से बिआह भइल। उनकर बिआही जीवन पाँच साल ले खूब ढ़ंग से बीतल। तारक नाम के एगो बेटो भइल। ऊ अपना रत्ना के बहुत सनेह देत रहस। एक बेर रत्ना उनका अनुपस्थिति में अपना नइहर चल गइली। ऊ घरे आके जब रत्ना के ना पवलें आ पड़ोसी से उनका नइहर जाए के जानकारी मिलल त राता-राती जइसे-तइसे रत्ना के घरे पहुँच गइलें। नइहर में लजाइल रत्ना का तुलसीदास के ई बेवहार नीमन ना लागल आ ऊ स्वाभाविक रूप से कहलीं कि एतना नेह-सनेह जदि रउरा अपना आराध्य राम में रखतीं त भवसागर के भय मिट जाइत। एकरे के लेके एगो बानी परचलित बा-

' हाड़ चाम के देह मोर, जवना से एतना प्रीति।
एतना रहित जो राम से, कहाँ रहित भवभीति।।'

इहँवे उनकर माथा ठनकल आ सूकरखेत में गुरु नरहरि दास से सुनल राम चरित आ ओकरा परभाव के इयाद आइल आ ऊ उहाँ से वापस आ के साधु भेस में कासी, अजोध्या, चित्रकूट आदि के तीर्थाटन कइलें आ फेर अपना आराध्य राम से जुड़ल कई एक गो काव्यग्रंथन के रचना कइलें।

अब जहाँ तक उनका जिनगी से जुड़ल बाह्य साक्ष्य के बात बा त ओकरा में प्रमुख ग्रंथ बाड़ें स - संवत् १६२५ में लिखल गोकुलनाथ जी के ' दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता ', संवत् १६४२ के लिखल नाभादास जी के ' भक्तमाल ', संवत् १६८७ में लिखल वेणीमाधव दास जी के लिखल ' गोसाईं चरित ', संवत् १७६९ के लिखल प्रिया दास जी लिखल ' भक्तमाल की टीका ' आ रघुवर दास जी के

लिखल ' तुलसी चरित ' आदि।

गोकुलनाथ जी ' दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता ' के अनुसार, कासी में रह के भासा में रामायन लिखे वाला राम भक्त तुलसीदास नंददास के बड़ भाई रहलें। कासी से ब्रज-यात्रा के समय उनकर भेंट छोट भाई नंददास से भइल रहे। गोकुलनाथजी का सब्दन में,

' नंददास जी तुलसीदास के छोट भाई हवे। सो उनके नाच तमासा देखबे के तथा गान सुनबे के सौक बहुत हवे।'
' सो वे नंददास जी ब्रज छोड़ के कहूँ जात नाहीं हवें। सो नंददास जी के बड़ भाई तुलसीदास जी कासी में रहत हवें।'
' सो एक दिन नंददास जी के मन में अइसे आई। जे जइसे तुलसीदास जी ने रामायन भासा में करी हवें। सो हमहूँ श्रीमद्भागवत भासा में करीं। '
' सो नंददास जी के बड़ भाई तुलसीदास जी हवें। सो कासी जी से नंददास जी के मिलवे के लागी ब्रज में आए। सो मथुरा में आई के सिरी जमुना जी के दरसन करे। पाछे नंददास जी के खबर करा के सिरी गिरिराज जी गए। उहाँ तुलसीदास जी नंददास जी के मिले। जब तुलसीदास नंददास जी से कहे कि तूं हमारे संग चलऽ। गाम रूचे त अजोध्या में रहऽ। पुरी रूचे त कासी में रहऽ।'

( दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता, पन्ना - २८,३२, ३३)

अइसे तुलसीदास के अध्येता बिद्वान लोग के अनुसार तुलसीदास के परिवार परम्परा में कहीं नंददास के नाम नइखे आवत आ वेणीमाधव दास अपना ' मूल गोसाईं चरित ' में कनौजिया पंडित नंददास के तुलसीदास के गुरु भाई बतावत लिखले बारन- ' नंददास कनौजिया प्रेम मढ़े। जिन सेस सनातन सेहि पढ़े।। सिच्छा गुरु बन्धु मये तेहिसे। अति प्रेम सो आए मिले येहिसे।।' ( पन्ना-२९ )

अइसहीं नाभादास के ' भक्तमाल ' प्रियादास के 'भक्तमाल टीका' में राम भक्त तुलसीदास के कुटिल कलि काल में जीव के उद्धार खातिर बाल्मीकि के अवतार बतावल बा - ' कलि कुटिल जीव निस्तार हित बालमीकि तुलसी भयो।'( श्रीभक्तमाल, पन्ना- ७३७ )। डॉ. राम कुमार वर्मा अपना ' हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ' में ' गोसाईं चरित ' के हवाले से बतवले बारन कि संवत् १६१६ में सुरदास जी तुलसीदास से मिलके आपन ' सुरसागर ' दिखवलन। एकरा कुछे दिन बाद इनका मेवाड़ से मीराबाई के चिट्ठी मिलल। जवना के ऊ उत्तर दिहलें। संत तुलसीदास संवत् १६१६ में आराध्य राम आ कृस्न के लेके ' राम गीतावली ' आ कृष्ण गीतावली ' के रचना कइलें।

माई हुलसी के पूत तुलसी ( रामहि प्रिय पावन तुलसी के। तुलसिदास हित हिय हुलसी के।।- मानस ) मतलब बचपन के रामबोला ( राम के गुलाम नाम, रामबोला राखो नाम - विनय पत्रिका) के माई-बाप बचपन में तेयाग देले रहे। ( मातु पिता जग जाई तजे, बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई।- कवितावली )। जवना के वजह से उनका दीन-हीन दसा में दर दर के ठोकर खाए आ दाना-दाना के तरसे के पड़ल रहे ( बारे में ललात बिलबिलात द्वार दीन, जानत हो चारि फल चारि ही चनक के।- कवितावली )। जवना के वजह से उनका अपना गाँव-घर से प्रेम कम हो गइल रहे आ उनका लिखे के पड़ल - ' तुलसी तहाँ न जाइए जहाँ जनम के गाँव '। ऊ त गुरु नरहरि दास भगवान बनके सहायक भइलें ( बंदऊ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि ) जेकरा वजह से ऊ सूकरखेत, कासी, रघुनाथपुर, चित्रकूट, वारिपुर, दिगपुर, अवधपुरी आदि के यात्रा करत गइलें - " मैं पुनि निज गुरु से सुनी कथा सो सूकरखेत - मानस, सेइत सहित सनेह देह भर कामधेनु कलि कासी - विनय-पत्रिका, वारिपुर दिगपुर बीच बिलसत भूमि, अङ्कित जो जानकी चरन जलजात के - कवितावली ), नौमी भौमवार मधुमासा, अवधपुरी यह चरित प्रकासा - मानस आदि)। जवानी में पत्नी के मोहजाल के कुरस्ता आ तीनो दोसन सहित काम भाव से पीड़ित हो गइल रहलें ( लरिकाईं बीती अचेत चित चंचलता चौगुनी चेत। जोबन- जुर जुवती कुपथ्यकरि त्रिदोस भरि मदन बाय )। जनश्रुति बा कि पत्नी रत्नावली के फटकार से उनका गुरु के सुनावल राम चरित आ दिहल राम-नाम मंत्र मन पड़ल आ ऊ मोहमुक्त हो पइलें। एह प्रसंग में रत्नावली के मुँहे कहवावल दोहा प्रसिद्ध बा- 'अस्थि चर्म के देह मोर, जवना से एतना प्रीति, होखित जो सिरी राम से, तोहे न होइत भवभीति।' बाद के तुलसीदास ( केहि गिनती महँ, गिनती बस बनघास, नाम जपत भये तुलसी तुलसीदास।- बरवै रामायन ) के रूप में अपना आराध्य भगवान राम के आराधना आ उनके के केन्द्र में रख के साहित्य-साधना में लाग लगइलें।

तुलसीदास के लिखल फुटकर गीत, कविता आ प्रबंध काव्य के संख्या बिद्वान लोग अलग-अलग बतवले बा। वेणीमाधव दास के ' मूल गोसाईं चरित ' में दिहल रचना आ ओकर रचना काल के सूची के डा. रामकुमार वर्मा अपना ग्रंथ में उल्लेख कइले बारन- राम गीतावली- संवत् १६२८, कृष्ण गीतावली- संवत् १६२८, राम चरित मानस - संवत् १६३१, राम विनयावली (विनय-पत्रिका) - संवत् १६३९, रामलला नहछू- संवत् १६३९, पार्वतीमंगल- संवत् १६३९, जानकीमंगल- संवत् १६३९, दोहावली- संवत् १६४०, सतसई - संवत् १६४२, बाहुक - संवत् १६६९, बैराग्य संदीपनी- संवत् १६६९, रामाज्ञा - संवत् १६६९ आ बरवै - संवत् १६६९। एह सूची में कवितावली के उल्लेख नइखे।

सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन तुलसीदास का ग्रंथन के तीन जगह तीन गो संख्या गिनवले बारन। इंडियन एंटिकरी ( सन् १८९३ ) ' नोट्स ऑन तुलसीदास ' के अनुसार २१ ग्रंथ, इंट्रोडक्शन टु दि मानस- सन् १८८९ ( खड्गविलास प्रेस ) के अनुसार १७ आ इंसाइक्लोपीडिया ऑव रिलीजन एंड एथिक्स के अनुसार १२ गो ग्रंथ बा- छोट ग्रंथ - रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायन, जानकीमंगल, पार्बतीमंगल, रामाज्ञा आ बड़ ग्रंथ - कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, गीतावली, कवितावली, दोहावली अउर राम चरित मानस। कुछ बिद्वान हनुमान बाहुक आ हनुमान चालीसा के भी तुलसीदास का रचनन में गिनती करेला आ जनश्रुति एकरा पक्ष में बा।

तुलसीदास का एह तमाम ग्रंथन के भासा के लेके बिद्वानन के अलग-अलग मत बा। बाकिर खुद तुलसी अपना रचनन के भासा ' भासा आ कहीं कहीं भाखा लिखले बारन। बाकिर उनकर भासा भा भाखा तब के भा अब के कवन भासा ह। एकरा में दू मत नइखे कि उनका ग्रंथन में कई भासा का सब्दन के बेवहार भइल बा। जवना के ओर डॉ. रामकुमार वर्मा ' काव्य निर्णय ' पुस्तक में आइल दोहा के माध्यम से इसारा कइले बारन -

' तुलसी गङ्ग दुबो भये, सुकविन के सरदार।
जिनके ग्रंथन में मिली, भाषा विविध प्रकार।।'

मतलब तुलसीदास का ग्रंथन में विविध प्रकार के भासा मिलेला। ई तथ्य अस्वाभाविक नइखे। बाकिर बात बा कि कवना भासा के बेवहार बहुतायत भइल बा। ओकरा में कवना भासा के ध्वनि-प्रकृति आ भाव-प्रकृति के बर्चस्व बा। सर्वनाम, क्रिया, बिसेसन, परसर्ग, कहाउत, मुहाबरा आदि के प्रयोग अधिक बा।

जवना घरी खड़ी बोली हिन्दी के पास पर्याप्त साहित्य ना रहे तवना घरी भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी आदि का साहित्य आ साहित्यकारन के हिन्दी में गिनती कर के संख्या बढ़ावल गइल। जवन बाद में रूढ़ हो गइल। फेर चुकी राम के संबंध अवधपुरी से रहे एह तुलसीदास का राम बिसयक साहित्य के अवधी के मान लिहल गइल। बाकिर आगे भोजपुरी आ अवधी भासा के ध्वनि-प्रकृति आ भाव-प्रकृति पर बिचार करत उनका भासा पर बात कइल जाई।

भोजपुरी आ अवधी का भासिक समानता के समुझे खातिर बात कुछ अउर पहिले से सुरू करेके पड़ी। जदि जनभासा ( गण भाषा समूह ) सबका समन्वय से बनल बैदिक भासा के रागात्मकता, लयात्मकता, बलाघात, सुराघात ( ध्वनि-राग ), ऋग्बेद आ यजुर्वेद में मिलत तमाम सब्द-समूह आ ओकर उचारन पद्धति के एतना लमहर कालखंड के बादो आज का भोजपुरी में उपस्थिति के बात छोड़ियो दिआव त उत्तर बैदिक काल आ बुद्ध काल के भासा कोसली, ओकर प्रयोग क्षेत्र सहित कालखंड अउर कोसली-भोजपुरी-अवधी का सम्बन्धन पर बिचार करे के होई।

पुरान काल में कोसल महाजनपद के अस्थापना इक्ष्वाकु कुल के क्षत्रिय राजा लोग कइल। जवना के सीमा-क्षेत्र उत्तर भारत के उत्तर में नेपाल के तराई क्षेत्र, दक्खिन में बिन्ध पर्बत, पूरब में मिथिला आ मगध आ पच्छिम में कुरु जनपद के छुवत रहे। कोसल राज के बढ़ल प्रताप के प्रभाव में एह महाजनपद में बोलल जाए वाली भासा के कोसली कहल जात रहे। बिद्वान लोग के मत बा कि कोसली पन्द्रह सौ साल तक आ हिड्स डेविड का ' बुद्धिस्ट इंडिया ' के मोताबिक बारहवीं सदी तक एह बड़ भू-भाग के मातृभासा बनल रहल। बहुत लमहर समय तक मल्ल, बज्जि, करुस, कासी, अवध, बत्स आदि के क्षेत्र कोसल राज के अधीन रहे। जवना के बौद्ध ग्रंथन में 'मज्झिम देस' बाद के बिद्वान 'मध्यदेस ' आ ' पूर्बी क्षेत्र ' कहके इहाँ का भासा के ' मध्यदेसीय आ पूर्बी भासा भा बोली कहले बा। डॉ. उदय नारायण तिवारी अपना ग्रंथ ' भोजपुरी भाषा और साहित्य ' में ' हाब्सन-जाब्सन' आ 'हेनरी यूल आ ए. सी. बर्नेल कृत कोश' के हवाले से बतवले बारन कि ' उत्तरी भारत में ' पूरब ' से तात्पर्य अवध, बनारस आ पच्छिमी बिहार से बा। अतएव 'पूर्बिया' एही प्रांतन का निवासियन के कहल जाला। बंगाल के पुरान फौज का सिपाहियन खातिर भी एही सब्द के प्रयोग होत रहे। काहे कि इन्हन में अधिका एही प्रांत के रहनिहार रहलें।' ( पन्ना - २१५ )

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार ' बुद्ध भगवान का उपदेस के प्रणयन सबसे पहिले एही पूरबी बोली में होके, बाद में ओकर अनुवाद पालि में, जवन कि मध्य देस के पुरान भासा पर आधारित होके एगो साहित्यिक भासा रहे, से भइल। ( भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, पन्ना - १८६- १८७ )। ऊ अपना एही ग्रंथ में आगे लिखत बारन कि ' सम्राट अशोक के राजभासा एगो पूर्बी बोलिए रहे आ मौर्यन का राजत्व काल में समस्त आर्यावर्त में इहे भासा सगरो समुझल जात रहे आ बेवहार होत रहे। अशोक का सिलालेखन में कतहीं मध्यदेस के भासा पालि उपलब्ध नइखे। '(पन्ना-१८८)। रास बिहारी पाण्डेय ' भोजपुरी भाषा का इतिहास ' में ' शतपथ ब्राह्मण ' आ ' काशी का इतिहास ' के आधार पर भोजपुरी क्षेत्र में प्राचीन मल्ल, बज्जि, कासी, कोसल, करुस, बत्स आदि जनपदन के सम्मिलित कइले बारन। डॉ. राजबली पाण्डेय ' हिन्दी साहित्य का वृहद इतिहास ' का पहिला भाग में लिखले बारन कि ' भोजपुरी क्षेत्र के प्राचीन सीमा के रेघिआवल कठिन काम बा। बाकिर एह क्षेत्र में प्राचीन मल्ल, बज्जि, कासी, बत्स आदि जनपद निहचित रूप में सामिल रहे। एह तरह से कोसल महाजनपद के भासा कोसली भा पूर्बी बोली के सीमा- क्षेत्र आ भोजपुरी के सीमा-क्षेत्र एके बा। डॉ. राम विलास शर्मा अपना पुस्तक ' भाषा और समाज ' में हिड्स डेविड का ' बुद्धिस्ट इंडिया ' के हवाले से कहले बारन कि बारहवीं सदी आवत आवत कोसली से दूगो भासा छिनगल। मिथिला आ मगध के पच्छिम अउर अवध का पूरब के भासा भोजपुरी कहाइल आ अवध के भासा अवधी। बाकिर दूनों में काफी समानता बा। भोज आ भोजपुर के प्रभाव के चलते एह क्षेत्र का बोली के भोजपुरी आ अवध क्षेत्र का बोली के अवधी कहल गइल। बाकिर आगे चलके ब्रजभासा के साहित्यिक आ बेवहारिक प्रभाव के चलते अवधी का भासिक रूपन में बदलाव नजर आवे लागल। एकरा बावजूद भोजपुरी आ अवधी में बहुते भासिक समानता बा।

बारहवीं सदी में कोसली के पूरबी रूप के भोजपुरी आ पच्छिमी रूप के अवधी कहाए के वजह ई रहे कि एकरा पहिले मगध-मिथिला का पच्छिम आ अवध का पूरबी भू-भाग वाला करुस क्षेत्र ,जवन 'अस्थली प्रांत ' कहात रहे ओकरा पर कन्नोज के राजा मिहिर भोज दसवीं सदी में भोजपुर नगर आ उनका बाद धार ( मालवा ) के परमार राजा भोज के बंसज भोजदेव ( १००५-१०५५ ) आ उनकर बंसज जीत के ओह पुरनका भोजपुर के बगल में एगो नयका ' भोजपुर ' नाम के नगर भा राजधानी बनवलन। उनकर राज १२२३ ई. तक कायम रहल। एह बीच ऊ पालबंसी राजा लोग का सेना के भागलपुर का लगे जुद्ध-भूमि में हरा के आपन राज-बिस्तार बंगाल के सीमा से लेके कासी का आउर पच्छिम ले फइला लिहलें। एक तथ्य के उलेख दुर्गाशंकर सिंह अपना ग्रंथ ' भोजपुरी के कवि और काव्य ' के पन्ना-१८ पर कइले बारन। ऊ एह प्रकरन के बिस्तार से लिखले रहस। बाकिर ग्रंथ के संपादक भासा बिग्यानी विश्वनाथ प्रसाद कम कर दिहलें। संस्कृत परमार राजा भोज के राजभासा रहे आ उनका पहिले पन्द्रह सौ साल से एह क्षेत्र के राजकाज आ लोक-बेवहार के भासा कोसली रहे। जवन भोज आ उनका राजधानी भोजपुर के मिलल प्रसिद्धि का चलते उहाँ के लोक-बेवहार में ' भोजपुरी ' नाम से जानल जा लागल। ओइसहीं पच्छिम में अवध क्षेत्र के प्रसिद्धि के चलते अवधी संग्या पवलस। क्षेत्र-बिस्तार के चलते एक भासा होखे के बावजूद दूनों में अस्थानीय भेद के भइल स्वाभाविक रहे। बाकिर कई तरह के स्थानीय भेद आ अवधी पर ओकरा पच्छिम का भासा पड़ल प्रभाव के बादो दूनों का समान ध्वनि-प्रकृति पर कवनो असर ना तब रहे आउर ना अब बा। जबकि 'कोसे-कोसे पानी बदले आ आठ कोस पर बानी ' के बात त बड़ले बा एकरा अलावे हर भासा का भासिक रूप में एक सौ साल बाद कुछ ना कुछ परिवर्तन आ जाला। बाकिर भोजपुरी आ अवधी में आजुओ बहुत तरह के भासिक समानता बा।

जवना बारहवीं सदी में कोसली भोजपुरी आ अवधी नाम के दू भासिक संग्या से उचरित होखे लागल रहे, ओही समय में संस्कृत राजभासा में राज चलावे वाला परमार भोजबंसी राजा लोग के अधीन कासी नरेस राजा गोविन्दचंद्र कासी पर राज करत रहलें। संस्कृत राजकाज के भासा रहे आ जनता के भासा भोजपुरी आ अवधी रहे। राजा गोविन्दचंद्र के सभापंडित दामोदर शर्मा अथवा भट्ट राजकुमार लोग संस्कृत सिखावे का उदेस से एगो दू भासिक ब्याकरन ' उक्ति व्यक्ति प्रकरन ' लिखलें। जवना में भोजपुरी- अवधी भासा के माध्यम से राजकुमार लोग के संस्कृत सिखावे के उतजोग कइल बा। एकरा में दूनों भासा का संगे-संगे दूनों भासा-क्षेत्र का संस्कृति आ जीवन-पद्धतियो के सीख दिहल गइल बा। दू भासिक ग्रंथ होखे का चलते एकरा में तत्सम सब्दन के बहुतायत प्रयोग देखे के मिलेला। भोजपुरी के कबि कबीर के काल एकरा तीन सौ साल बाद के ह आ रैदास अउर तुलसी के चार सौ साल बाद के। पं. दामोदर भट्ट के अलावे कबीर, रैदास आ तुलसी तीनों संत-महात्मा के संबंध कासी से बा। कबीर, रैदास आ तुलसी तीनों जने अपना रचनन में राम के उलेख करत बा लोग। एह तीनों जना का भासा के सही मरम जाने खातिर बारहवीं सदी के पं. दामोदर भट्ट का उक्ति व्यक्ति प्रकरण ' का भासा पर बिचार जरूर करे के पड़ी। जवना में भोजपुरी-अवधी का संगे संस्कृतो भासा का सब्दन के प्रयोग बा। भासा के आधुनिक बिद्वान लोग उक्ति व्यक्ति प्रकरण का भोजपुरी के पूरबी- हिन्दी आ अवधी कहले बा। कुछ बिद्वान के बिचार जानल जरूरी बा।

डॉ. विश्वनाथ प्रसाद का सब्दन में ' १२वीं सदी में पंडित दामोदर द्वारा लिखल ' उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण ' में ओह समय बनारस में प्रचलित भासा के जवन नमूना मिलऽता, ओकरा से भोजपुरी का बिकास के पता चलऽता। ' ( भोजपुरी के कवि और काव्य; संपादक का मन्तव्य, पन्ना-३ )। एही बात के अपना सोध-ग्रंथ ' भोजपुरी लोकगाथा ' में डॉ. सत्यव्रत सिन्हा बतवले बारन - ' उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण ' का भासा के डा. सुनीति कुमार चटर्जी कोसली के प्राचीन रूप बतवले बारन; बाकिर ओकरे बहुते प्रयोग अइसन बा, जवन आजुओ भोजपुरी में ज्यों के त्यों पावल जालें, जइसे - का करें, काहे, काहाँ, ईहाँ, लाजे, लौँड़ी, ढूक, कापास, बाछा आदि। संभव बा, प्राचीन काल में कोसली आ भोजपुरी में आउरो अधिका समरूपता होखे। हमरा नजर से, हमरा समझ से, ओकरा में भोजपुरी का बिकास के सबूत प्राप्त कइल अनुचित नइखे।'(। )

डॉ. मोतीचंद का मत के सकारत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखले बारन कि ' बेद पढ़ब, स्मृति अभ्यासब, पुराण देखब, धर्म करब ' ई बारहवीं सदी के बनारसी भासा के नमूना बा।( हिन्दी साहित्य का आदिकाल , पन्ना- १९ )। उहँवे डॉ. राम विलास शर्मा एही ' उक्ति व्यक्ति प्रकरण ' से अवधी के जनम भइल बतावत अपना ग्रंथ ' भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी ' में कहत बारन कि ' बारहवीं सदी में दामोदर पंडित जवना तरह का अवधी के उदाहरन देत बारन, ओकरा से एह सवाल के उत्तर मिल जाता कि अपभ्रंश में अवधी के तत्व सामिल कइल जा रहल रहे चाहे अवधी में जनम हो रहल रहे।'( पन्ना-२०४ )। बारहवीं सदी से आगे चउदहवीं सदी में लिखाइल नयनचंद्र सूरि का ' रंभा मंजरी ' के भासा पर बिचार करत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ओकरा भासा के ' कवनो मराठी भासी कबि के भोजपुरी लिखे के प्रयास बतवले बारन।'( हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पन्ना -३०)। अइसहीं आउर अनेक बिद्वान लोग द्वारा अपना अपना क्षेत्रीय भासा के बेवहार ग्यान के आधार पर ' उक्ति व्यक्ति प्रकरण : के भासा भोजपुरी आ अवधी

बतावे का कारनन के पड़ताल करत डॉ. जितराम पाठक अपना सोध आलेख ' रामचरितमानस की भाषा : एक नया संदर्भ ' में लिखत बारन कि ' बर्तमान संदर्भ से त अइसन लागऽता कि भोजपुरिए भासा सउँसे अवध क्षेत्र चाहे अवधी भोजपुर क्षेत्र के भासा रहे। क्षेत्रीय प्रयोग के कारन आ आउर भासिक प्रभाव से अवधी आ भोजपुरी में भेदक तत्व भले खोज निकालल जाए। '(पन्ना-११)। पाठक जी अपना सोध आलेख ' भोजपुरी - हिन्दी के विकास ' में भोजपुरी आ अवधी के एके भासा मानत अपना मत के पक्ष में अनेक प्रमान प्रस्तुत कइले बारन ‌ जवना के आगे उलेख कइल जाई। ( भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका, अंक- नवम्बर, १९९२, पन्ना -३८६-३९१)। अब तुलसी का रचनन के भासा के भोजपुरी सिद्ध करे खातिर पहिले भोजपुरी आ अवधी का भासिक समानता आ कबीर, रैदास, दरिया, धरनी, लक्ष्मी सखी आदि के अलावे भोजपुरी के उनइसवी-बीसवीं सदी के कबि रामकृष्ण वर्मा बलवीर, तेग अली तेग, महेन्दर मिसिर, भिखारी ठाकुर, अर्जुन सिंह 'अशांत ' का रचनन तुलसी का भासा के तुलनात्मक अध्ययन कइल जाई।

भोजपुरी आ अवधी :

भोजपुरी आ अवधी दूनों भासा के सम्बन्ध पुरान कोसली भासा से बा। नवीं- दसवीं सदी के आसपास नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ के गोरखबानी में पुरनके कोसली भासा में संस्कृत के तत्सम आ तद्भव सब्दन का सङे आउर गण भाषा मतलब जनभासा के समाहार मिलेला-

'हँसिबा खेलिबा रहिबा रंग, काम क्रोध ना करिबा संग।
हँसिबा खेलिबा गाइबा गीत, दिढ़ करि राषिबा आपना चीत।।'

भोजपुरी के भविस्यत काल के क्रिया खातिर ' ब' प्रत्यय ( खाइब, पीयब, जाइब, आइब आदि ), बर्तमान खातिर ' ल ' प्रत्यय ( खाइल, पीयल, गइल, आइल आदि ) आ भूतकाल खातिर त ' ल ' प्रत्यय लगबे करेला। ब पर बलाघात खातिर बिकारी चिन्ह भा आकार के मात्रा लागेला- गइबऽ चाहे गाइबा, रखिबऽ चाहे रखिबा आदि। इहाँ ष ब्यंजन के प्रयोग भोजपुरी के ख खातिर भइल बा - लषन के लखन, वर्षा के बरखा, धनुष के धनुख आदि। बारहवीं सदी के लिखल दामोदर पंडित के पुस्तक ' उक्ति ब्यक्ति प्रकरण ' में भोजपुरी के माध्यम से राजकुमार लोग के संस्कृत सिखावे में उतजोग कइल बा। जवना का भासा के कासी के लोग भोजपुरी के अस्थानीय रूप कासिका बतावेला त ओकरा पच्छिम के लोग अवधी। एकरा में क्रियावाची सब्दन के अइसन बहुते भोजपुरी आ अवधी क्षेत्र में समान रूप से प्रयोग होखे वाला सब्दन के बेवहार कइल गइल। कारकीय बिभक्ति, परसर्ग, सर्बनाम आदि के प्रयोग प्रायः उहे बा जवन कबीर, रैदास आ तुलसी के बाद आजुओ भोजपुरी आ अवधी में प्रयोग कइल जाला।

पुरान कोसली , भोजपुरी आ अवधी के ध्वनि-प्रकृति एक बा। ई तीनों भासा ' न, र, स ' ध्वनि-केन्द्र के भासा ह। ' ण, ल, श ' ध्वनि केन्द्र के भासा मागधी एकरा पूरब आ कौरवी, हरियाणवी-पंजाबी एकरा पच्छिम के क्षेत्र के ह। भोजपुरी आ अवधी में समान रूप से गणेश के गनेस, आदरणीय के आदरनीय, चरण के चरन, फल के फर, केला के केरा, कपाल के कपार, हल के हर, फाल के फार, शर के सर, शीश के सीस, शाम के साँझ आदि उचरेला आ लिखाला। व के ब हो जाला- विहार के बिहार, वानर के बानर, वर्षा के बरखा आदि। भोजपुरी आ अवधी में स्वर मध्यम क के ग समान रूप से हो जाला - शाक के साग, लोक के लोग, आकर के आगर आदि। एह दूनों भासा में य के ज उचारे के प्रवृत्ति प्रधान बा- युगल - जुगल, यजमान - जजमान, युग - जुग, यमुना - जमुना, संयोग - संजोग आदि। एह दूनों भासा में ष के उचारन ख होला- पुरुष - पुरुख, धनुष - धनुख, लषण- लखन, पष्ठी - खस्टी आदि। ई ध्वनि प्रकृति मागधी आ कौरवी, बांगरू आ हरियाणवी-पंजाबी में ना के बराबर बा। भोजपुरी आ अवधी में महाप्रान ह ध्वनि के बहुतायत रूप आ प्रयोग मिलेला- दिनकर, हुनकर, हेकर, होकर आदि।

भोजपुरी आ अवधी में सर्बनाम रूप हम एकबचन आ बहुबचन दूनों में चलेला। पुरान भोजपुरी आ अवधी में मैं के प्रयोग पावल जाला - मैं भोजन माँगब ( दामोदर पंडित ),। राम मोर पीव मैं राम के बहुरिया ( कबीर ) आ मैं पुनि निज गुरु सन सुनीं ( तुलसी )। सर्बनाम तू, तूं, तोर, तोहर, तोहार, तुम्हरे के प्रयोग कबीर, तुलसी, धरनी, लछमी सखी सभे करत नजर आवऽता। डॉ. जितराम पाठक के अनुसार प्रस्नबाचक सर्बनाम के

के मूल रूप क ह। एही से भोजपुरी आ अवधी में क से का, के केकर, कइसन आदि सब्द बनल बा। त सर्बनाम मूल रूप से तेकर, तैसा, ताके आदि रूप के रचना भइल बा। भोजपुरी आ अवधी में अधिकतर क्रिया का तिङ्न्त रूप चलेला। कृदन्तो रूप चलेला बाकिर प्रधानता तिङ्न्त के पावल जाला।

भोजपुरी आ अवधी में संस्कृत धातु रूप के ढ़ेर प्रचलन ढ़ेर बा - कर् में त प्रत्यय लगाके करत, ओइसहीं पठ से पढ़त, चर् से चरत आदि। डॉ. जितराम पाठक अपना आलेख ' भोजपुरी - हिन्दी के विकास ' में भोजपुरी आ अवधी के एके भासा सिध कइले बारन। हिन्दी के अकारांत सब्द भोजपुरी आ अवधी में अकारांत हो जालें- मीठा - मीठ, तीता - तीत, बड़ा - बड़ छोटा - छोट आदि। भोजपुरी आ अवधी में खड़ी बोली हिन्दी जइसन कर्ता खातिर ने परसर्ग ना लागे। के, का, क, से, में, माँ, पर आदि परसर्ग दूनों भासा में चलेला। कोसली से छिनगल पच्छिमी भासा-रूप अवध के अवधी पर तुलसी के समय आवत-आवत ब्रजभासा के प्रभाव नजर आवे लागल रहे। एह से एकरा में अ अउर आ के अलावे ओ प्रत्यय के प्रयोग होखे लागल रहे जवन कोसली का पूरबी भासा-रूप वाला भोजपुरी में ना पावल जाए। अवधी पर पड़ोसी भासा ब्रजभासा के प्रभाव कई तरह से देखे के मिलेला, जवना के आधार पर कुछ लोग तुलसी का भोजपुरी के ब्रजभासा प्रभावित अवधी मान लेवे लें। बाकिर भोजपुरी आ अवधी के ध्वनि-प्रकृति, भाव-प्रकृति, प्रत्यय, उपसर्ग, परसर्ग, सर्बनाम, बिसेसन, क्रिया-रूप, मुहावरा, लोकोक्ति आदि का समानता पर धेयान ना देलें।

भोजपुरी आ अवधी दूनों मध्यदेसीय भासा हवें स। दूनों के मूल स्रोत एके भासा बा। चम्पारन आ नेपाल का भोजपुरी के अस्थानीय नाम मधेसी एही मध्यदेसीय से संक्षिप्त सब्द-रूप ह। मध्यदेसीय भासा के परिभासित करत डॉ. राम विलास शर्मा कहत बारन कि ' मध्यदेस के भासा के अर्थ ह सामान्य लक्छन वाला गनभासा सब ( गणभाषा सब ) के समुदाय।'

( भारतीय प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी, भाग-३, पन्ना-२५२)। डॉ. जितराम पाठक के अनुसार 'एह गनभासा में शौरसेनी, कौरवी, कोसली आ मागधी का सामान्य लक्छन समाहित बा। जवना में कोसली के भूमिका के महत्व सबसे अधिका बा। कोसली के प्रभाव भारत का सब आधुनिक आर्यभासा पर लउकऽता।'( भोजपुरी-हिन्दी के विकास ; भो. स. प., अंक- नवम्बर, १९९२, पन्ना-३८५ )

हिड्स डेविड के अनुसार ' एह भासा ( कोसली ) के बेवहार सउंसे कोसल राज में ही ना होत रहे, पूरब से पच्छिम में, पटना से दिल्ली तक आ दक्खिन में सावत्थी से अवन्ति तक एकर बेवहार होत रहे।'(बुद्धिस्ट इंडिया; पन्ना -९५ )। एकरे के ग्रियर्सन अर्धमागधी कहले बारन। उनका अनुसार ' शौरसेनी आ मागधी का बीच के तटस्थ क्षेत्र रहे जहाँ के भासा अर्धमागधी कहात रहे।' बाकिर अर्धमागधी नाम त जैन प्राकृत के रहे आ ई क्षेत्र बैस्नव मतावलंबी लोग के ह। डॉ. जितराम पाठक ठीके लिखले बारन कि ऐतिहासिक तथ्य से बिचलित होके ग्रियर्सन अवधी के पूरबी हिन्दी - अर्धमागधी नाम से सम्बोधित कइले बारन। एह से भासा का क्षेत्र में अराजक भ्रम पैदा हो गइल बा।' (भो. स. पत्रिका, अंक- नवम्बर-१९९२, पन्ना-३८५)। डॉ. बाबूराम सक्सेनो अपना अनुसंधान ग्रंथ ' अवधी का विकास ' में लिखलें बारन कि ' पूरबी हिन्दी के भासाई सम्बन्ध जैन अर्धमागधी के अपेक्षा पालि से अधिक बा।(पन्ना-६) बुद्ध के बाद राजाश्रय प्राप्त बौद्ध धर्म के सिद्धाचार्य आ अनुआई लोग बुद्ध का बचन के क्षेत्रीय भासा में संस्कृत का तत्सम-तद्भव सब्दन के मिलाके बनल पालि भासा में अनुबाद कइल। एहू भासा के ध्वनि-प्रकृति भोजपुरी से बहुत मिलल-जुलल लागेला। जवना के धेयान में राखके आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के पटना में आयोजित दूसरका अधिवेशन में अध्यक्षीय भासन में कहलें कि हमरा त बुझाला कि पालि भासा भोजपुरी के पुरान रूप ह। जइसे सात कोस पर भासा का स्वरूप में परिवर्तन नजर आवे लागेला ओइसहीं हर सौ साल के बाद कवनो भासा का भासिक रूपन में कई वजह से बदलाव नजर आवे लागेला। एहू दूनो कारन से भोजपुरी आ अवधी में तमाम तात्विक समानता के बावजूद कुछ-कुछ असमानता नजर आइल स्वाभाविक बा।

अब आगे कबीर, रैदास, तुलसी, दरिया, धरनी आदि सहित आधुनिक काल के भोजपुरी कबि लोग का साहित्यिक भासा प्रयोग के तुलनात्मक अध्ययन के तुलसी का भासा पर बिचार करब। बाकिर सबसे पहिले तुलसी का का कुछ रचनन के उदाहरन सामने राखे के पड़ी।

तुलसीदास जी भोजपुरी भासी कासी में बाबा बिस्वनाथ के आगे आदर सहित माथ नवावत संबत सोरह सै एकतीस के रामचरितमानस के लिखल सुरू कइलें -

' सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनऊ बिसद राम गुन गाथा।। संबत सोरह सै एकतीसा। करहूँ कथा हरि पद धरि सीसा।।'

एकरा में माथ नवावल, राम का गुन गाथा के बिसद बरनन कइल, सोलह के जगे सोरह , सौ के बदले सै सब्द का सङे पाँव पर शीश ना सीस धइल भोजपुरी ना ह त का ह? फेर-

'नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।। जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं।।' में नवमी के जगह नौमी, वार के बार, जेहि दिन, जन्म ना जनम, तीरथ, सकल, तहाँ आदि भोजपुरिए नू ह। खैर, रामचरितमानस लिखे का पहिले तुलसीदास जी कई गो फुटकर काब्य के रचना कइलें। जवना के कुछ पद, दोहा, गीत, चउपाई आदि के उदाहरन देख के उनका भोजपुरी लिखे के अंदाजल जा सकेला। उनका एक एक पोथी से भोजपुरी के नमूना छंद निकालल जाव। पहिले उनका ' रामाज्ञा- प्रस्न ' से कुछ उदाहरन लीं -

१. ' कुम्भकरन राबन सरिस मेघनाथ से बीर।
ढहे समूल बिसाल तरु कालनदी के तीर।।'

२. सती सिरोमनि सीय तजि, राखि लोकरूचि राम।
सहे दुसह दुख सगुन गत, प्रिय बियोग परिनाम।।

३. गुन बिस्वास, बिचित्र मनि,सगुन मनोहर हारु।
तुलसी रघुबर-भगत-उर,बिलसत बिमल बिचारु।।

४. निज कर सींचति जानकी, तुलसी लाई रसाल।
सुभ दूती उनचास भलि, बरखा कृसि सुकाल।।

५. भेंट गीध रघुराज सन, दुनु दिसि हृदय हुलास।
सेवक पाई सुसाहिबहि, साहिब पाई सुदास।।

तुलसीदास के ई भोजपुरी आज का भोजपुरी भासा-रूप केतना नियरा बा। ई केहू भोजपुरी के मरमी बता सकेला। 'बैराग-संदीपनी' से कुछ उदाहरन लिहल जा सकेला -

१. राम बाम दिसि जानकी, लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय, सुरतरु तुलसी तोर।।

२.सुनत लखत श्रुति नयन बिनु,रसना बिनु रस लेत।
बास नासिका बिनु लहे, परसे बिना निकेत।।

३. सरल बचन भासा सरल, सरल अर्थमय मानि।
तुलसी सरले सन्तजन, ताहि परी पहिचान।।

४. अहंकार के अगिन में, दहत सकल संसार।
तुलसी बाँचे सन्तजन, केवल सांति अधार।।

५. तुलसी बेद पुरान मत, पूरन सास्त्र बिचार।
यह बिराग संदीपनी, अखिल ग्यान के सार।।

६. राम भरोसो राम बल, एक आस बिस्वास।
राम-रूप-स्वाति-जलद, चातक तुलसीदास।।

इहाँ खाली कुछ छंद नमूना के रूप में दिआ रहल बा। ताकि तथ्य सामने आ जाए। अब उनका

' रामलला नहछू ' से कुछ उदाहरन प्रस्तुत बा-

१. अहिरिन हाथ दहेड़ि सगुन लेइ आवइ हो।
उनरत जोबन देखि नृपति मन भावइ हो।।

रूप सलोनि तमोलिन बीरा हाथइ हो।
जाहि ओर बिलोकहि, मन तेहि साथइ हो।।

नैन बिसाल नउनिया भौं चमकावइ हो।।

२. आदि सारदा गनपति गौरि मनाइय हो।
रामलला केर नहछू गाइ सुनाइय हो।।

जेहि गाए सिधि होई परम निधि पाइय हो।
कोटि जनम केर पातक, दूरि सो जाइय हो।।

जो पगु नाउन धोवइ , राम धोवावइ हो।
सो पग धूरि सिध मुनि, दरस न पावइ हो।।

जो इह नहछू गावइ गाइ सुनावइ हो।
रीधी सीधी कल्यान मुकुति नर पावइ हो।।

३. काहे रामजिउ साँवर, लछिमन गोर हो।
कीदहुँ रानि कोसलहि परिगइली भोर हो।।

राम अहहिं दसरथ के, लछिमन आन के हो।
भरत सत्रोहन भाई त सिरी रघुनाथ के हो।।

४. नाउनि अति गुनखानि त बेगि बोलाइय हो।
करि सिंगार अति लोन त बिहसत आइय हो।।

कनन- चुनिन सों लसित नहरनी लिय कर हो।
आनँद हिय न समाइ देखि रामहि बर हो।।

कानन-कनक तरीवन, बेसरि सोहइ हो।
गजमुकुता कर हार कंठमनि मोहइ हो।।

कर कँगन कटि किंकिन नूपुर बाजइ हो।
रानि के दीन्ही सारी, अधिक बिराजइ हो।।

तुलसीदास जी जब श्रीकृस्नगीतावली के रचना करत बारन त उनका पदन में भोजपुरी का सङे सङे ब्रजभासा के छौंक स्वाभाविक रूप से आ जाता। तबो ओकरा पद- गीतन में भोजपुरी के रूप देखते बनत बा। आईं ओकरा एगो गीत में भोजपुरी भासा के दरसन करत रस लिहल जाव -

टेरि कान्ह गोबर्धन चढ़ि गैया।
मथि मथि पियो बारि चातिक मैं
भूख न जाति अघाति न घैया।
सैल सिखर चढ़ि चिते चकित चित,
अति हित बचन कह्यो बल भैया।

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खेलत खात परस्पर डहकत
छीनत कहत करत रोगदैया।
तुलसी बालकेलि सुख निरखत,
बरसत सुमन सहित सुरसैया।।

एह गीत में खेलत, खात, डहकत, छीनत, कहत, करत, विरक्ति, बरसत क्रमवार भोजपुरी के सब्द बइठत चल गइल बा। जवना के तुलसीदास चाहियो के नइखन रोक पवले।

तुलसीदास जी के ' बरवै-रामायन ' में त भोजपुरी के रूप देखते बनत बा -

१. चम्पक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाइ।
जानि परे सिय हियरे जब कुंभिलाइ।।

२. नित्य नेम- कृत अरुन उदय जब कीन।
निरखि निसाकर-नृप-मुख भए मलीन।।

३. गरब करहु रघुनंदन, जनि कन माँह।
देखहु आपनि मूरत सिय के छाँह।।

४. जटा मुकुट कर सर धनु, संग मरीच।
चितवन बसत कनखियनु अँखियनु बीच।।

५. बिरह आगि उर ऊपर जब अधिकाय।
जे अँखिया दोउ बैरिनि जेहिं बुझाय।।

६. केहि गिनती मँह, गिनती जस बन घास।
राम जपत भए तुलसी तुलसीदास।।

एह तरह से उनका बरवै रामायन से अनगिनत उदाहरन दिहल जा सकऽता। अइसहीं ' जानकी मंगल ' से कुछ बानगी देखल जा सकेला -

१. गुरु गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति।
सारद सेस सुकबि स्रुति संत सरलमति।।
हाथ जोरि करि बिनय सबहिं सिर नाउ।
सिय-रघुबीर-बिबाहु जथामति गाउ।।

२. प्रमुदित हृदय सराहत भल भवसागर।
जहँ उपजहिं अस मानिक बिधि बड़ नागर।।

३. बिसय बिमुख मन मोर सेइ परमारथ।
इन्हहिं देखि भयो मगन जानि बड़ स्वारथ।।

४. कटि निसंग कर-कमल धरे धनु सायक।
सकल अंग मनमोहक जोहन लायक।।

५. सो छबि जाई कि बरनि, देखि मन माने।
सुधापान करि मूक कि स्वाद बखाने।।

६. उपबीत ब्याह उछाह जे सियाराम मंगल गावहिं।
तुलसी सकल कल्यान ते नर नारि अनुदिन पावहिं।

एह तरह से तुलसी के भोजपुरी उनका के राम भक्ति धारा के भोजपुरिया कबि के रूप में सभका सोझा रख देत बा। आगे उनका कुछ आउर ग्रंथन से भोजपुरी का गीत, कबित, दोहा, चउपाई, सोरठा, रोला आदि छंद के बानगी प्रस्तुत कइला के बाद उनका रचनन में भोजपुरी के अलावे आउर कई भासा का सब्दन के दरसावल जाई। जवन प्रसंग आ संदर्भ के मुताबिक अनायास आ गइल बा, जवना में संस्कृत का तत्सम सब्दन के अलावे, ब्रजभासा, अरबी-फारसी आदि के प्रचलित सब्द बाड़ें स। जवन भोजपुरी-अवधी भासा में पच के ओकर सम्पत्ति हो गइल बाड़ें स।

रामाज्ञा प्रश्न, बैराग-संदीपनी, कृस्नगीतावली, रामलला नहछू आ बरवै रामायन के अलावे तुलसीदास का आउरो काब्य रचनन में भोजपुरी के दरसन से बात आपर फरछिन नजर आई। एह से कुछ उदाहरन उनका आउर पोथियन से लिहल जा सकत बा ; जइसे उनका ' जानकी मंगल ' आ ' पार्बती मंगल ' से कुछ डाँड़ी देखल जा सकेला।

'जानकी मंगल ' से,

१. गुरु गनपति गिरिजापति गौरि गिरापति।
सादर सेस सुकबि स्रुति संत सरलमति।।
हाथ जोरि करि बिनय सबहिं सिर नावहूँ।
सिय - रघुबीर - बिबाहु जथामति गावहूँ।।

२. उपवीत ब्याह उछाह जे सियाराम मंगल गावहिं।
तुलसी सकल कल्यान ते नर नारि अनुदिन पावहिं।

३. छिनु सीतहि छिनु रामहिं पुरजन देखहिं।
रूप - सील - बय - बंस बिसेस बिसेखहिं।।

४. देबि! सोच परिहरिय, हरख हिय आनिय।
चाप - चढ़ाउब राम, बचन फुर मानिय ।।
तीन काल कर ग्याँन कौसिक केहि करतल।
से किय स्वयंबर आनहि बालक बिनु बल।।

५. कहहिं एक भल बात ब्याह भल होइहें।
बर दुलहिन लगि जनक अपन पन खोइहें।।
सुचि सुजान नृप कहहिं हमहिं अस सूझइ।
तेज - प्रताप - रूप जहँ - तहँ बल बूझइ ।।

६. बिसय बिमुख मन मोर सेइ परमारथ।
इन्हहिं देखि भयो मगन जानि बड़ स्वारथ।। आदि।

' पार्बती मंगल ' से,

१. गावउँ गौरि-गिरीस- बिआह सुहावन।
पाप नसावन पावन मुनि मन भावन।।

२. कबित रीति नहिं जानउँ कबि न कहावउँ।
संकर चरित सुसरित मनहिं अन्हवावउँ।।

३. पूजहिं सिवहिं समय तिहँ करहिं निमंजन।
देखि प्रेम ब्रत नेम सराहहिँ सज्जन।।

४. नीन न भूख पिआस सरिस निसि बासर।
नयन नीर मुख नाम पुलक तनु हिय हर।।

५. जो बर लागि करहु तप तो लरिकाइय।
पारस जो घर मिले तो मेरु कि जाइय।।

६. मनि बिनु फनि जलहीन मीन तनु त्यागइ।
सो कि दोस गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ।।

७. का करि बाद - बिबाद बढ़ावहि ?
मीठ काह कबि कहहिं जाहि जेइ भावहि।।

८. सैलकुमारि निहारि मनोहर मूरति।
सजय नयन हिय हरख पुलक तनु पूरति।।
पुनि पुनि करे प्रनाम न आवत कछु कहि।
लेखों सपन की सौंतुख ससिसेखर सहि।। आदि

दोहावली में त तुलसीदास आउर फरिआ के भोजपुरी का सब्द, मुहाबरा, उपमा, प्रतीक आ बिम्ब आदि के बेवहार करत नजर आवत बारन; जइसे -

१. गोंड़ गँवार नृपाल महि यमन महामहिपाल।
साम न दाम न भेद कलि केवल दंड कराल।।

२. मंत्री गुरु अरु बैद जो प्रिय बोले भय आस।
राज धरम तन तीनि कर होई बेगहिं नास।।

३. बसि कुसंग चह सुजनता ताकी आस निरास।
तीरथ हो के नाम भयो गया मगह के पास।।

४. रामकृपा तुलसी सुलभ गंग सुसंग समान।
जो जल परे जो जन मिले कीजे आप समान।।

५. चलत नीति मग राम पग नेह निबाहत नीक।
तुलसी पहिरहि सो बसन जो न पखारे फीक।।

६. सत बचन मानस बिमल कपटरहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहिं सके न कलजुग धूति।।

७. हिय निर्गुन नयनहि सगुन रसना राम सुनाम।
मनहिं पुरट-संपुट लसत तुलसी ललित ललाम।।

८. ग्याँन कहे अग्याँन बिनु तम बिनु कहे प्रकास।
निर्गुन कहे जो सगुन बिनु सो गुरु तुलसीदास।।

आदि।

अइसहीं नमूना के रूप में उनका कवितावली, गीतावली, विनय-पत्रिका आ रामचरितमानस से भी कुछ पद आ दोहा-चउपाई, रोला, सोरठा आदि के उदाहरन लिहल जा सकऽता ; जइसे -

१. ओझरी के झोरी कान्हे, आँतन्हि के सेली बान्हे।
मूंड के कमंडल, खपर किए कोरि के।।
जोगिनी झुदुंग झुंड झुंड बनी तापसी सी,
तीर तीर बइठी सो समर-सरि खोरि के।।
सोनित सो सानि सानि गुदा खात सतुआ से,
प्रेत एक पियत बहोरि घोरि घोरि के।।
तुलसी बैताल भूत साथ लिए भूतनाथ,
हेरि हेरि हँसत हैं हाथ हाथ जोरि के।।
( कवितावली ६/५० )

२. बाजहिं मृदंग डंफ ताल बेनु।
छिरिके सुगंध भरे मलय रेनु।।
नूपुर किंकिन ध्वति अति सोहाई।
ललना गन जेहि धरइ धाई।।
लोचन आँचहिं फगुआ मनाइ।
छाड़हिं नचाइ हा हा कराइ।।
चढ़े खरनि बिदूसक स्वांग साजि।
करे कुटि, निपट गइ लाज भाजि।।
नर-नारि परस्पर गारि देत।
सुनि हँसत राम भाइन समेत।।
( गीतावली ७/२२/३/९ )

३. राम कहत चलु राम कहत चलु,
राम कहत चलु भाई रे।
नाहिं त भव बेगारि महँ परिहो,
छूटत अति कठिनाई रे।।
बाँस पुरान साज सब अटखट,
सरल तिकोन खटोला रे।
हमहिं दिहल करि कुटिल करमचदँ,
मन्द मोल बिनु डोला रे।।
बिसम कहार मार मद माते,
चलहिं ना पाउँ बटोरा रे।
मन्द बिलन्द अभेरा दलकन,
पाइअ दुख झकझोरा रे।।
काँट कुराय लपेटन लोटन,
ठावहिँ ठाउँ बझाऊ रे।
जस जस चलिय दूरि तस तस निज,
बास ना भेंट लगाऊ रे।।
मारग अगम संग नाहिं संबल,
नाँव गाँव कर भूला रे।
तुलसिदास भव-त्रास हरहु अब,
होऊ राम अनकुला रे।।

( विनय-पत्रिका )

४. उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

( मानस- ३/३८/५ )

राम कहत तन राखहु ताता।
मुख मुसुकाइ कही तेहि बाता।।

( मानस- ३/३०/५ )

ऊँच निवास नीच करतूती।
देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।

( मानस- १/३३/५ )

नइहर जनम भरबि बरु जाई।
जिअत ना करब सबति सेवकाई।।

( मानस - २/२०/१ )

दुइ कि होइ एक समय भुआलु।
हँसब ठठाइ फुलाइब गालु।।

( मानस - ( २/३४/५ )

एह तरह से अनगिनत उदाहरन के जरिए साबित कइल जा सकऽता कि तुलसीदास के काब्य के भासा भोजपुरी बा। बाकिर तब के भोजपुरी के भासा- रूप में आ आजु के भोजपुरी के रूप में कई प्रकार के अन्तर देखल जा सकऽता। जवन स्वाभाविक बा। काहे कि भासा-बैग्याँनिक ई साबित कर चुकल बारन कि अक्सरहाँ सौ साल के बाद कवनो भासा का भासिक रूप में कुछ ना कुछ बदलाव आ जाला। एकरा अलावे हर भासा में आ ओकरा अस्थानीय भासा-रूपन में कुछ ना कुछ अन्तर होइबे करेला। तुलसीदास के बचपन भलहीं सरजुग, सुरसरि गंगा, गंडक आ सोन नदी का आस-पास का इलाका में बीतल होखे। बाकिर जीवन के बाकी उमिर पच्छिमी भोजपुरी भासी क्षेत्र कासी से अवध तक में बीतल बा। एकरा अलावे भगवान कृस्न के पावन धाम मथुरा में भी कुछ समय तक निवास करके उलेख मिलेला। भासा-बैग्याँनिक उत्तर भारत का बिबिध भासा सब के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इहो सिध कर चुकल बारन कि तुलसी का काल तक आवत आवत अवधी पर ब्रजभासा के पूरहर प्रभाव पड़ चुकल रहे आ ब्रजभासा काब्य का भासा के रूप में स्वीकारो कर लिहल गइल रहे। मुगल सरकार के राज-बेवस्था आ ओकरा भासाई दबाव के चलते देसी भासा सब में अरबी-फारसी भासा घुलल जात रहे। तुलसीदास खुद संस्कृत के महापंडित रहलें। एह सब भासाई दबाव के बावजूद तुलसीदास अपना काब्य में संस्कृत, ब्रजभासा आ अरबी-फारसी के यथा अस्थान प्रयोग के बावजूद अपना मातृभासा भोजपुरी आ ओकरा पच्छिमी रूप अवधी का ध्वनि-प्रकृति आ भाव-प्रकृति के अलावे इलाका में प्रचलित कहाउत, मुहाबरा, उपमा, प्रतीक आदि खातिर भोजपुरी भासी क्षेत्र में उपलब्ध बस्तुअन के बार बार प्रयोग कइले बारन। जवना पर आगे बिचार कइल जाई।
सम्प्रति:
डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

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