साहित्यिक विधन के रचना प्रक्रिया: डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'



जइसे बच्चा के रूप-रंग, कद-काठी, लिंग आदि के सिरजना गर्भे में हो जाला। जनम के बाद ना बने। ओइसहीं भाव-बिचार घनीभूत भइला के बादे विधा के सिरजना साहित्यकार के मानस में तय हो जाला। रचनाकार के जवन रचना पढ़निहार आ सुननिहार आ देखनिहार का दिल-दिमाग में उल्लास, उमंग, उत्साह आ निरासा के जगे बिस्वास ना पैदा करे ऊ ना त स्वांत:सुखाय हो सकेला आउर ना लोक हिताय। काहे कि कवनो रचना के पहिल पढ़निहार खुद रचनाकारे होला। रचनाकार अपना जोगता के मोताबिक आपन उत्तम अभिव्यक्ति समाज के देला। इहंवा ऊ स्व से सर्व के ओर बढ़ेला। साहित्यिक कर्म एकपक्षीय होइए ना सके। ईशोपनिषद् के एगो ऋचा बोलऽता- ' जे सब भूतन में अपना आत्मा के देखेला आ ऊ सब भूतन के अपना आत्मा में देखेला अउर अपना आत्मा के सब भूतन में देखेला। ओकरा मन में कवनो तरह के राग-द्वेष ना रह जाए आ ऊ एकात्म मानव के जमीन पर पहुँच जाला।
' यस्तु सर्वानि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।'
एही एकात्म मानव का धरातल पर पहुँच के साहित्यकार रचना करे खातिर उत्सुक होला। तब ओकरा रचना के बिचार-बीज में जन मानस में बड़-बड़ गाछ-बिरीछ के रूप लेके पसरेला, फुलाला, फरेला, छाँह देला, मन-मिजाज के मोहेला। एकरे के रचनाकार के रचना-बिधान कहल जाला।
साहित्य के काम ह व्यक्ति के समष्टि से, अतीत के वर्तमान से आ वर्तमान के भविस्य से जोड़ल। एही से आचार्य लोग कहल- 'सहितस्य भाव साहित्यम्।'
जीवन के बाहरी जगत के सम्बन्ध बिग्यान से बा त भीतरी जगत के सम्बन्ध अन्तर्ग्यान से बा। दूनो एक दोसरा के पूरक ह। साहित्य में ई दूनो भाव-बिचार रूप में बिराजमान होला।
साहित्य उहे ह जवना में सबकुछ आर-पार देखाई दे आ जवना से सच्चाई के अनुभूति होखे। एही अनुभूति के बदौलत साहित्य अपना के मनुष्य आ मनुष्यता खातिर बिग्यान से अधिक उपयोगी साबित करेला। बिग्यान अनुभूति-रहित पदार्थ भा प्रक्रिया ह। ई साहित्ये समाज के अपसंस्कृति, उपभोक्तावाद आ असंवेदनशील होखे से बचा सकऽता। आज मानव समाज खातिर साहित्य जरूरी बा। इहे समाज के तमाम समस्यन से घिरल समाज के सजग आ संवेदनशील बना सकऽता।
सम्प्रति:
डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

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