भोजपुरी आंदोलन की प्रासंगिकता - डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'

छपरा - ०७ नवम्बर, २०२१ को ऋषि दधीचि की तपोभूमि छपरा के साधनापुरी में क्रांतिदर्शी प्रयोगधर्मी महान ऋषि विश्वामित्र की जयंती मनाई गई। इस अवसर पर सारन जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान एवं ब्रजेन्द्र कुमार सिन्हा की अध्यक्षता में 'भोजपुरी आंदोलन की प्रासंगिकता' विषय केन्द्रित संगोष्ठी आयोजित की गई । संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए बी आर अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कालेज के भोजपुरी विषय विभाग के अध्यक्ष डॉ जयकान्त सिंह 'जय' ने भोज, भोजपुर और भोजपुरी के नामकरण से वैदिक भोज गणों के पुरोहित ऋषि विश्वामित्र को सम्बद्ध करते हुए पौराणिक तथा ऐतिहासिक भोज नामधारी राजाओं से भोजपुर और भोजपुरी को सिलसिलेवार ढंग से जोड़ते हुए भोजपुरी भाषा के विस्तृत इतिहास से अवगत कराया। डॉ. जयकान्त के अनुसार भोजपुरी भाषा, संस्कृति, समाज, साहित्य और शिक्षा के सम्यक् निर्माण, उत्थान एवं वैश्विक पहचान के साथ साथ इसके संवैधानिक अधिकार के लिए आंदोलन को जनांदोलन में परिणत करने की आवश्यकता है।
भोजपुरी भारत के पचास हजार बर्गमील से भी बड़े भू-भाग के अठारह करोड़ जनता की मातृभाषा है। विश्व के कई देशों की राष्ट्रीय भाषा है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय साहित्य-संस्कृति के निर्माण में भोजपुरी भाषा और भोजपुरी भाषी जनता का योगदान अतुलनीय है। इस भाषा का लोक साहित्य एवं लिखित साहित्य काफी समृद्ध है। भोजपुरी भाषी क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों में मातृभाषाई अस्मिताबोध का अभाव और अपने साहित्य-संस्कृति के प्रति उदासीनता के कारण यह भाषा आज भी अपनी आजादी और अधिकार की लड़ाई लड़ रही है। इससे साहित्य, क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से बहुत ही कमजोर-कमजोर भाषाएं अपने बौद्धिक सम्पन्न राजनेताओं की संगठित सक्रियता एवं इच्छाशक्ति के कारण भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होकर सम्मान ही नहीं नहीं पा रही हैं बल्कि अपने क्षेत्र के विकास में प्रयोजन मूलक होकर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। अठारह-बीस करोड़ की जनसंख्या वाली अपनी मातृभाषा भोजपुरी आज यदि कुछ लाख एवं एक-दू करोड़ की जनसंख्या वाली भाषा डोगरी, संथाली, सिंधी, नेपाली, मैथिली आदि की तरह संवैधानिक अधिकार भाषा होती तो इसके अध्ययन-अनुसंधान के उपरांत भोजपुरी भाषा युवा वर्ग भी आई ए एस, आई पी एस सहित सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थानों में सेवा देकर अपने एवं समाज-राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान देते। केन्द्र से लेकर राज्य स्तरीय सरकारी विभागों में कार्यरत होते। भोजपुरी सेवी भाषाविद् एवं साहित्यकार सम्मानित, पुरस्कृत और प्रकाशित होते। प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर शिक्षा और शिक्षक की व्यवस्था होती। अपने क्षेत्र में भी भोजपुरी भाषा आधारित सेवा एवं रोजगार के अवसर पैदा होते। इसके लिए भोजपुरी सेवी साहित्यकार एवं संस्थान सन् १९४७ से आंदोलनरत हैं।
सन् १९६९ से अबतक कई बार संसद में इस माँग को भोगेन्द्र झा, प्रभुनाथ सिंह, ओम प्रकाश यादव, जोगी आदित्य नाथ आदि निजी विधेयक, ध्यानाकर्षण एवं स्पेशल सेशन के माध्यम से उठाते रहे हैं। लेकिन सभी भोजपुरी भाषी एवं प्रेमी सांसद पार्टी एवं जाति से ऊपर उठकर संगठित रूप से कभी आवाज नहीं उठाये हैं और इस मुद्दे पर संसद के कार्यवाही का बहिष्कार कर सरकार पर दबाव नहीं बना पाए हैं। इसके लिए हमें अपने सांसदों सहित विधायकों, मुखिया, सरपंचों तक पर दबाव बनाना होगा ताकि भोजपुरी की आवाज ग्रामसभा से लोकसभा तक पहुँचे। इस आंदोलन को जन आंदोलन बनाना होगा।
सन् १९४७ में सारन जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन की स्थापना और उसका अधिवेशन हुआ था। इस पचसत्तरवें वर्ष को भोजपुरी आंदोलन के अमृत वर्ष तथा संघर्ष वर्ष के रूप में लगाना होगा। इस अवसर पर संगोष्ठी के अध्यक्ष ब्रजेन्द्र कुमार सिन्हा ने सारन जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन का विराट अधिवेशन नये वर्ष में आयोजित कर इस आंदोलन को निर्णायक बनाने की बात कही। इस अवसर पर अपनी बात रखने एवं आंदोलन से जन जन को जोड़ने का आश्वासन देने वालों में प्रमुख थे सम्मेलन के महामंत्री आचार्य सारंधर सिंह, कोषाध्यक्ष बबन सिंह, पूर्व महामंत्री विश्वनाथ शर्मा, प्रो. पी राज सिंह, डॉ ओम प्रकाश सिंह राजापुरी, अजय सिंह, कमल किशोर सिंह, ज्ञानदेव सिंह, सुरेश सिंह, पी एन सिंह, सर्वेन्द्र प्रताप, शत्रुघ्न राउत आदि। गोष्ठी में उपस्थित श्रोताओं ने इस तरह की गोष्ठी को मासिक स्तरीय आयोजित करने का प्रस्ताव दिया। गोष्ठी का संचालन आचार्य सारंगधर सिंह और धन्यवाद ज्ञापन कमल किशोर सिंह ने किया।
सम्प्रति:
डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

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