भोजपुरी जन आंदोलन के आधार : भोजपुरी के आजादी आ अधिकार - प्रो.(डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

कवनो सार्वजनिक हित खातिर जब कवनो जन-समुदाय संगठित अथवा असंगठित होके बेवस्थित चाहे अबेवस्थित ढ़ंग से लगातार रचनात्मक क्रियाकलाप भा गतिबिधि चलावत रहेला ओकरे के आंदोलन कहल जाला। पहिले ई हलचल अनायासे पैदा होला बाकिर समय का सङ्गे-सङ्गे ई सायास आपन आकार आ तेवर बदलत-बढ़ावत चल जाला। फेर जब ओकरा अइसन प्रतीत होखे लागेला कि कवनो संस्था भा सत्ता ओकरा प्रति उदासीन बा चाहे उपेक्षा के भाव राखऽता चाहे टहला-टरका रहल बा त उहे मुद्दा आ माँग ओह जन समूह भा जन समुदाय खातिर अस्तित्व आ अस्मिता के सवाल बन जाला। अइसन अवस्था में पहुँचते आंदोलन कवनो धैर्यवान, निस्वार्थी, ईमानदार आ समर्पित सक्रिय नेतृत्व के पाके प्रभावी जनांदोलन के रूप अख्तियार कर लेवेला।

भोजपुरी भासा, संस्कृति, लोक जीवन, मौखिक साहित्य आदि के इतिहास त बहुत पुरान बा। बाकिर पर संस्थागत रूप से सोचे आ एकरा पहचान-उत्थान खातिर व्यक्तिगत आ सामूहिक उतजोग करे के सिलसिला उनइसवीं सदी से चले लागल। पहिले यूरोपीय बिद्वान लोग; जइसे जान बीम्स, रेवरेंड समुअल हेनरी केलाग, रूडोल्फ हार्नले, जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन, ई डेविड, एजा एम चाइल्ड, एल सेंट जोसेफ आदि एकरा लोक संस्कृति, स्थानीय बोली-रूप, हिन्दुस्तानी आ खड़ी बोली हिन्दी से एकर सम्बन्ध, लोक गाथा, गीत कथा, कहाउत, मुहावरा, बुझउवल, सब्दकोस, बेयाकरन आदि के लेके बहुते महत्व वाला काम करके संकलित, सम्पादित आ प्रकासित करावल। तब तक भोजपुरी समाज अगिला जमात के पढ़ुआ-लिखुआ आ बड़-बड़ ओहदा के आकांक्षी लोग रोजी-रोजगार के खेयाल करत मुगलकाल आ अंगरेजन का काल के जबरन थोपल भासा अरबी-फारसी आ इंग्लिश के अरजे आ ओकरा माध्यम से आम जनता से अपना के सेसर जनावे-जतावे में तह-बादर भइल रहे। बाकिर धीरे धीरे भोजपुरी समाज का एह जागरूक के आँख ओह ग्यान-पिपासु बिद्वान लोग का भोजपुरी सम्बन्धी अध्ययन-अनुसंधान पर गइल आ एहू लोग में अपना भासा, क्षेत्र, संस्कृति, वाचिक साहित्य के दिसाईं अस्मिताबोध आ गौरवबोध पैदा होखे लागल। जवना के सुफल भइल ई भइल कि भोजपुरी इलाका के पढ़ुआ बर्ग भोजपुरी भासा, क्षेत्र, संस्कृति, वाचिक साहित्य के अध्ययन-अनुसंधान के अलावे ओह सबके संगिरहा-सम्पादन आ प्रकासन में आगे आवे लागल। बीसवीं सदी सुरु होते होते भोजपुरी पत्र-पत्रिका निकले लागल। बेयाकरन लिखाये लागल। कविता, लेख छपाये लागल। आपन पुरान साहित्य ढ़ुंढ़ाये लागल।

एही सब रचनात्मक गतिविधि के जरिए भोजपुरी में लिखे आ संस्था-संगठन बनाके लोग के लिखे-पढ़े अउर सम्मेलन-अधिवेसन के सिलसिला चलल। महाविद्यालय आ विश्वविद्यालय के बिद्वान प्राध्यापक, बिद्यार्थी लोग का भीतर अपना मातृभासा के प्रति दायित्वबोध पैदा भइल। पं. राम नरेश त्रिपाठी, जय परगास नारायन, शिवदास ओझा, रामकृष्ण वर्मा बलवीर, तेग अली तेग, धीरेन्द्र वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, बनारसी दास चतुर्वेदी, रास बिहारी राय शर्मा, डॉ. बासुदेव शरण अग्रवाल, दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह आदि भोजपुरी भासा, लोक संस्कृति, लोक साहित्य आदि पर लिखे के अलावे आपन मौलिक रचना के सामने ले आवे लागल लोग। पहिले चूंकि इहे लोग खड़ी बोली हिन्दी का लेखन आ पत्र-पत्रिका का संपादन आदि से जुड़ल रहे एह से खड़ी बोली हिन्दिये का पत्र-पत्रिकन में आपन रचना देत रहे। उदाहरन खातिर कुछ चर्चित रचनन में सन् १८८५-८६ में बनारस से निकले वाली पत्रिका 'गोरस' में राधाकृष्ण सहाय के भोजपुरी एकांकी 'दाद के दरद' सन् १९१४ में महावीर प्रसाद द्विवेदी का सरस्वती में छपल हीरा डोम के भोजपुरी कविता 'अछूत के सिकायत' १९२५ के आसपास बिहार का एगो हिन्दी पत्रिका में छपल उदय नारायण तिवारी के 'भोजपुरी भासा आ साहित्य' विषयक आलेख, सन् १९२८ ई. बनारस के पत्रिका 'सुधा बूंद' में छपल रास बिहारी राय शर्मा के आलेख 'भोजपुर', सन् १९४३ ई. में हंस पत्रिका में छपल राहुल सांकृत्यायन के 'जनपदीय भोसा भोजपुरी के लोक साहित्य आ लोक संस्कृति' सम्बन्धी आलेख आदि।

अइसे अब तक के अनुसंधान के अनुसार सन् १९१५ ई. भोजपुरी भासा आ संस्कृति के जनम भूमि बक्सर (वेदगर्भ आ ब्याघ्रसर) से अपना ग्यान आ आचरन से खुद के आचार्य सिध करेवाला जिला-जवार के लोकप्रिय मास्टर साहेब जय परगास नारायन भोजपुरी के पहिल पत्रिका 'बगसर समाचार' निकाल के बहुते क्रांतिकारी अभियान सुरु कइले। पहिले हाथ से लिख के आ फेर प्रेस में छपवाके सन् १९१८ ई. तक ई पत्रिका जन जन में भोजपुरी भासा, संस्कृति, समाज आ साहित्य से जुड़ल सामग्री लिख-छाप के पहुंचावत रहल। एकरे माध्यम से भोजपुरी इलाका आ इलाका से बाहर जाके रोजी-रोजगार आ देस सेवा में लागल जागरूक भोजपुरिया लोग में क्षेत्रीय आ भासाई गौरवबोध जागल आ फेर भोजपुर के मुख्यालय आरा से ' मनोरंजन ' (१९१८), कलकत्ता से राम वचन द्विवेदी 'अरविन्द' के 'हिन्दू पंच' (१९२५), बनारस से राम वचन द्विवेदी 'अरविन्द' के 'ढिंढोरा' (हप्तवारी,१९२७), कलकत्ता से अखौरी महेंद्र कुमार वर्मा के 'भोजपुरी' (तिमाही, १९२७), पहिले से निकलत एह 'भोजपुरी' पत्रिका के बंद हो गइला के बाद एक बार फेर कलकत्ते से अखौरी महेंद्र कुमार वर्मा के 'भोजपुरी' (१९४७) आदि निकलल। भोजपुरी भासा, संस्कृति, समाज, साहित्य आ क्षेत्र के प्रति अस्मिताबोध पैदा करे वाला एह सुरुआती पत्र-पत्रिकन के इतिहासिक महत्व बा। आज एह भोजपुरी पत्र-पत्रिकन के जहाँ-तहाँ हिन्दी आ भोजपुरी पत्र-पत्रिकन में नाम आ संदर्भ मिल जाला। अबहीं एह सबका अंकन के खोज निकाले के अभियान जारी बा।

एही सुरुआती पत्र-पत्रिकन के सुफल भइल कि सन् १९३८-३९ आवत-आवत राहुल सांकृत्यायन, बनारसी दास चतुर्वेदी, बासुदेव शरण अग्रवाल जइसन विभूति लोग का मानस में जनपदीय लोक आ लिखिल साहित्य के संकलन, अपना भासा संस्कृति के प्रति जनता के जागरूक कइल आ भोजपुरी आदि जनपदीय भासा के आधार पर राहुल सांकृत्यायन द्वारा प्रांतन का गठन के माँग उठे लागल। ई लोग देस का आजादी का सङ्गे-सङ्गे अपना भासो के आजादी खातिर जनता के जगावे लागल। काहे कि अंगरेजन द्वारा जब सउँसे देस का जनपदीय भासा, संस्कृति आ साहित्य के समाप्त करके सासन करे का सुविधा के खेयाल से अंगरेजी के अलावे दिल्ली, मेरठ आ हरियाना आदि का आस-पास के कौरवी, बांगरू, हरियाणवी आदि भसन के मेल से सिरजाइल बनावटी भासा खड़ी बोली के 'हिन्दी' नाम से खड़ा कइल गइल रहे।

एह कुल्ह जनपदीय मातृभासा के अस्तित्व मिटावे का खेयाल अपना चाटुकार भारतीय राजनेतन के बिस्वास में लेके एगो सियासी खड्यंत्र के तहत खड़ी बोली हिन्दिये के जबरन उत्तर भारत के मातृभासा घोसित कर देहल रहे आ एह कुल्ह परम्परागत जनपदीय मातृभासा सबके उनइसवीं सदी में अरजल कृत्रिम भासा खड़ी बोली हिन्दी के बोली बतावल सुरु कर दिहल रहे। ताकि भारतीय जनता के ओकरा मूल से काट के ओकरा पर अपना भासा अंगरेजी के अलावे एगो ओह भासा के जरिए सासन कइल जाए जवना से आम जनता के कवनो खास सरोकार नइखे रहल। बाकिर आगे चलके अंगरेजन के ई खड्यंत्र ओकनिये पर भारी पड़ गइल। ओकनी के चाटुकार भारतीय नेतन के अलावे देस भक्त नेता-जनता खड़ी बोली हिन्दी के ही आपन सम्पर्क-संबाद के भासा बना के देस के एक कइल आ स्वाधीनता आंदोलन के माध्यम भासा बना लिहल।

भोजपुरी भासी जागरूक पढ़ुआ लिखुआ लोग भी स्वाधीनता के लड़ाई मजबूत करे खातिर खड़ी बोली हिन्दी के देस-बिदेस के अस्तर पर मजबूत करे खातिर अपनावल। बाकिर जब ई आभास होखे लागल कि ई अंगरेज भारते ना सउँसे दुनिया में कमजोर हो रहल बाड़न आ आपन भारतो अब जल्दिये आजाद हो जाई त ई लोग फेर अपना मातृभासा आ साहित्य-संस्कृति के आगे बढ़ावे आ पहचान दिलावे में जुट गइल। देस के आउर परम्परागत प्राचीन भासा-भासी अपना भासा-साहित्य का बिकास के दिसाईं जागरूकता अभियान चलावत रहलें। एकरो प्रभाव भोजपुरी भासी लोग पर पड़ल आ उहो लोग खड़ी बोली हिन्दी के बिकास का सङ्गे-सङ्गे अपना मातृभासा भोजपुरी के विकास करके आ आजाद भारत में संवैधानिक अधिकार दिलावे का अभियान में लाग गइलें। ओह लोग का अपना भोजपुरी के ओह सियासी खड्यंत्र से आजादी दिलावे के रहे जवना के तहत देस के पचास हजार बर्गमील से भी बड़ भोजपुरी भासी भू-भाग के सरकारी अस्तर पर हिन्दी पट्टी घोसित करके हिन्दिये के मातृभासा बता दिहल गइल रहे। भोजपुरी भासी आ सेवी लोग अपना मातृभासा का आजादी के लड़ाई आजुओ लड़ रहल बा। केन्द्र आ राज्य के सरकार अपना शैक्षिक, प्रशासनिक आ सूचना-तंत्र के सहारे तरह-तरह के प्रोपगंडन के जरिए हिन्दी के लादे खातिर जनता के भरमावत आ फुसलावत रहले आ मातृभासी साहित्यकार लोग सरकार का एह खड्यंत्र के खिलाफ अपना मातृभासा भोजपुरी के आजादी आ अधिकार खातिर संवैधानिक दायरा में रह के रचनात्मक आंदोलन अभियान में सामिल रहेलें।
सम्प्रति:
डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

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