करुण रस के अप्रतिम कवि ठाकुर विश्राम सिंह - डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'

संस्कृत के एगो कवि ब्रह्मा से मिनती करत कहले रहे कि हे विधाता! जाने - अंजाने हमरा से भइल कवनो चूक का सजाय के रूप में हमरा लिलारे जवन लिखे के बा, लिख दिहऽ, बाकिर कबो अरसिक मतलब संवेदनहीन के कविता - गीत सुनावे के पड़े , ई कबो मत लिखिहऽ, कबो मत लिखिहऽ, कबो मत लिखिहऽ -

'इतर पाप फलानि यथेच्छया
वितर तानि सहे चतुरानन्।
अरसिकेषु कवित्व-निवेदनं,
शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख।'

एकर अभिप्राय ई रहे कि कविता - गीत रसिक जन के चीज ह। कविता - गीत हृदयहीन आ मतिछीन का पल्ले ना पड़े। जवना संवेदनहीन मनई के मन - मुकुर साफ ना होखे आ जेकरा बरनन कइल विषय में गति भा तन्मय होखे के योग्यता ना होखे, ओकरे के अरसिक आ अहृदय कहल गइल बा। जे कवनो कवि - गीतकार खातिर साक्षात् काल जइसन होलन। बाकिर भोजपुरी का बखरा में कुछ अइसन कवि - गीतकार आइल बाड़न जेकर कविता - गीत पत्थरो का करेजा के पिघला के मोम बनाके पघिलावे के कूबत राखेलन। आ एकर वजह ई बा कि उनका कविता - गीत में कोरा बौद्धिक जुगाली आ कवनो विचारधारा से प्रभावित नारा भर ना होखे। ओकरा में पसंगी से पचाठी तक के ही ना ओकरा आगे - पीछे के महसूसल लौकिक - अलौकिक जीवन का अनुभूतियन के सहज - स्वाभाविक रसमय भावाभिव्यक्ति अनायासे पावल जाला।

भोजपुरी के ऊ कविता - गीत भलहीं व्याकरण आ प्रस्तुतिकरण का मानक पर खरा ना उतरत होखे, बाकिर ओकर अनुभूति आ सहजग्राह्यता अतुलनीय होला। ओकरा कवनो खास आलोचक का व्याख्याता आ टीका के दरकार ना होखे। ऊ त अपना लोक जीवन आ लोक चेतना का सोता से फूटल नेमनिया-निरइठ मिसिरियो से मीठ गङ्गाजल जइसन शीतलता लेले होला। ओहू में यदि करुण रस के कविता - गीत होखे तब का कहे के। अइसहूं जब कवनो कवि का कारुणिक हृदय से शोक भाव भभक पड़ेला तब ओकर अभिव्यक्ति प्रभाव के दिसाईं अचूक होला। करुण रस के अइसने अप्रतिम कवि बाड़ें ठाकुर विश्राम सिंह।

ठाकुर विश्राम सिंह के जनम सन् १९०६-०७ के आसपास उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिला के सियारामपुर गाँव में भइल रहे आ सन् १९४७ ई. में मृत्यु हो गइल रहे। माई- बाप इनका के इस्कूली शिक्षा दिलावे के भरपूर प्रयास कइलें। बाकिर उनकर मन पढ़ाई-लिखाई में कवनो खास ना रमल त परिवार के लोग गिरहस्ती में मन रमावे वाला विश्राम सिंह के नवही होत-होत बिआह कर दिहल। ऊ अपना जीवनसंगिनी का संगे जीवन-यात्रा के कुछ डेग चललहीं रहलें कि उनका प्रियतमा के अकाल मृत्यु हो गइल। एह असमय अकल्पनीय आघात से उनकर भावुक हृदय अगाध शोक-सागर में डूबे-उतराये लागल। फेर जब ओह भाव-विह्वल हृदय से हठात् करुण काव्य के सोता फूटल त ऊ भोजपुरी के अप्रतिम अमर विरह काव्य बन गइल। जवना के भोजपुरी के साहित्य जगत बिसराम (विश्राम) के विरहा भा विरह काव्य कहेला।

अइसे 'विरहा' भोजपुरी लोकगीत के एगो निजी छंद ह। जवना के विषय में कहल गइल बा कि -

' नाहीं बिरहा के खेती भइया
नाहीं बिरहा फरे डाढ़।
बिरहा बसेला हिरिदय में,ए रामा
जब उमगे तब गांव।।'

ई 'उमगल' ही हठात् भावोद्रेक के अवस्था ह। जवन आत्मीय जन का बिरह-बिछोह के कातर हालत में उमगेला। एकरा माध्यम से शोकाकुल कवि अपना हृदय के शोक भाव उड़ेल देला। बिरह-बेदना से आकुल-ब्याकुल कवि ठाकुर विश्राम सिंह के ' बिरहा ' भोजपुरी के अप्रतिम शोक काव्य भा शोक गीत बा। अप्रतिम काहे बा एकर वजह बतावत डॉ. कृष्ण देव उपाध्याय कहले बाड़न कि 'इनका रचना में कोरा शाब्दिक कलाबाजी ना होके हृदय का बेदना के तीव्र अनुभूति बा।' अपना प्रियतमा पत्नी का सान्निध्य से भइल बिछोह के असह्य आघात बा। अइसन अवस्था ना त भवभूति का उत्तर रामचरित का राम के प्राप्त बा ना कालिदास का मेघदूतम् का यक्ष का। आचार्य बलदेव उपाध्याय यदि विश्राम के भोजपुरी साहित्य के ' कीट्स ' कहत बाड़ें त इहो परतर अनुचित बा। काहे कि अंगरेजी साहित्य के कवि ' कीट्स ' ना त भोजपुरी कवि विश्राम का ओह मनोदशा से गुजरल बाड़ें आ ना उनका कवितन में ओह तरह के शोक भाव प्रकट भइल बा।

प्राण से भी प्रिय प्रियतमा पत्नी का शवयात्रा के हृदय बिदारक मनोदशा के कवि का शब्दन में महसूसल जा सकेला -
' आजु मोर घरनी निकलली मोरे घर से,
मोरा फाटि गइल आल्हर करेज।
राम नाम सत सुनि मैं गइलों बउराई,
कवन रछसवा गइलें रानी के हो खाई।
सुखि गइले आँसू नाहीं खुलेले जबनियाँ,
कइसे के निकारी मैं त दुखिया बचनियाँ।'

कवि दिन-रात अपना दिवंगत प्रियतमा के लेके तरह-तरह का भाव-लोक में बिचरन करत रहत बा। प्रकृति के लेके ओकरा मन में हर छन उदासीनता के भाव भरल रहऽता। एक रात ऊ एगो कउआ के अकेले बइठल देख के ओकरो के अपना कउवी से बिछुड़ल जान के समानधर्मी बूझत कहत बा-

'तोरे जोड़वा के कवनो मरले चिबिल्ला कउआ,
मोरे जोड़वा के मरलें राम।
उनके मनवा छन भरवा बहलेला कउआ,
हमनी के तड़पे नित प्रान।।'

पी-पी के रट लगावत पपीहा के बिरहानल में धनकत कवि समुझावत कहत बा कि अब पी से मिले के असरा छोड़ऽ। बिरही का जिनगी के दिन-रात बिछोह में भुभुर में जरहीं खातिर होला। बिरह के बाद मिलन के सुख कहाँ ?

' रोअल धोअल अब छोड़ऊ हो पपीहा,
तनि सुनि लेव मोरिउ बात।
बिरहिन के सुख नाहिं मिलत मोर भइया,
उनके जरत बितेलें दिन-रात।'

असमसान घाट पर केहू दोसरो के चिता जरत देख के कवि अपना पत्नी वाला दाह-संस्कार के इयाद करत भावाकुल हो जात बा -
' नदिया किनारे एक ठे चिता धुँधुआले,
लुतिया उड़ि - उड़ि गगनवा में जाय।
लहकि लहकि चिता लकड़ी जरावे,
धनकि धनकि नदी के सनवा जनावे।
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चटकि चटकि के चिता में जरत बा सरिरिया,
नाहीं जानी पुरुस जरे या कि जरे तिरिया।
चितवा त बइठल एक मनई दुखाती,
अपने अरमनवन के डारत बाटे जारी।
कहे बिसराम लखिके चितवन के काम,
मोर मनवा ई हो जाता बेकाम।
अइसन चिता हो एक दिन हमई जरवलीं,
ओही सोगे फूँकि दिहलीं आपन अरमान।'

कवि विश्राम का भावुक हृदय में हर महीना आ मौसम में पत्नी का सङ्गे बितावत ओह सुखल पल के इयाद बिरही विश्राम कवि का भीतर के उद्बेग बढ़त रहत बा, जवन उनका गीतन में अइसन उतरता कि रसिक श्रोता-पाठक के भाव-बिह्वल कर देता। जाड़ा-पाला के मौसम होखे भा जेठ का अगिआइल दिन के, फगुआ के दिन होखे भा दिअरी-दिवाली के कवि के हृदय अपना प्रियतमा धनी के सङ्गे जीयल एक एक घटी-पल के इयाद करके व्यथित हो जाता। बानगी का रूप में कवि का ओह शोक गीतन के कुछ डांड़ी नमूना के रूप में देखल जा सकेला -
' अइलें बसंत मँहकि फइलल बा दिगंत,
भइया धीरे-धीरे बहेली बयार।
फूलेलें गुलाब फूले उजरी बेइलिया,
अमवाँ के डढ़ियन पर बोलेले कोइलिया।
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कहे बिसराम कुदरति भइले सोभाधाम,
चिरई गावत बाटे नदिया के तीर।
चलि चलि बतास उनके इयदिया जगावे,
मोरे मनवाँ में उठति बाटे पीर।।'

एगो खेतिहर किसान होखे के नाते कवि ठाकुर विश्राम सिंह के हर मौसम में बदलत प्रकृति का मिजाज के बहुत बारीक बोध बा। जइसे बसंत में गुलाब आ बेली के फूलाइल- गमकल, आम का डाढ़ी पर कोइलर के कुहुकल, पपीहा के पिहकल, कलियन पर भँवरन के उड़ि-उड़ि बइठल, लता के पेड़न से लपटाइल, खरलिच के अपना देसे उड़ि चलल आदि के बीच अपना बिछुड़ल दिवंगत पत्नी के इयाद करेज में पीर उठा देत बा, ओइसहीं तपत जेठ का महीना के लूकर झकोर, नाचत दुपहर के बंवड़ेरा, पछुआ के झरक, ताल-तलइया आ नदी-अहरा के सूखल-सिकुड़ल, पेड़न का छाँह में मवेसियन के पगुराइल-सुस्ताइल, आदि के बीच प्रिया हीन बियोगी कवि का गरब-गियान के सोत सूखि गइल बा। एह जेठ का महीना के बरनन करत गीत के कुछ बानगी देखल जा सकेला -
' आइ गइले जेठ के महिनवाँ ए भइया,
लुहिया त अब चलेले झकझोर।
तपत बाटे सूरज, नाचत बाय दुपहरिया,
अगिया उड़ावे चलि चलि पछुआ बेयरिया।
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अइसन समय में खरबुज्जा हरिअइलें,
अउरी हरा भइल बाय बोरो धान।
हमरे दुसमन बनके मन हरिअइले,
हमरा सूखि गइले हे गरब- गियान।।'

अइसहीं दिवाली में सगरो अँजोर फइलल बा आ बियोगी कवि का मन में अन्हार छवले बा। जगमग जगमग दिअरी बरल बा आ कवि अपना प्रियतमा के अभाव में उदास गुमसुम अपना सून कोनहरी में बइठे खातिर मजबूर बा। सभकर धनिया अपना अपना घरे दिअरी बार रहल बारी आ हमार घर हमरा रानी का ना रहला से अन्हार बा -

' आयल बाय दिवाली जग में फइलल उजियाली,
मोरे मनवा में छवले बा अन्हार।
जुगुर जुगुर दिया बरे होत बाय अन्हरिया,
मैं तो बइठल बाटीं अपनी सूनी रे कोनरिया।
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कहे बिसराम हमके दाना हौ हराम,
लखि के कूढ़ति भीतराँ बा जी हमार।
सबक त घरनी घर में दियवा जलावे,
मोरे रानी बिना मोर घर हौ अन्हार। '
सावन के महीना आइल बा। रह रह के मेघ घेरऽता। पपीहा गीत गावत उड़ऽता। मन में उत्फाल करेवाला हवा चलऽता। खेत में जोन्हरी के पतई आ मड़ुआ के फर वाला गूंथल चोटी हिलऽता, ऊंखि के झार खरखराता, आसमान में बकुलन के पाँति बेली का फूल के गजरा जइसन उड़त जा रहल बा, बगइचा में लागल झूला पर झूलत नारी लोग के गावल कजरी से कवि के हृदय घावाहिल हो रहल बा। सउँसे दुनिया आनंद मना रहल बा आ बन में मोर नाच रहल बा। बाकिर पत्नी का बिछोह में तड़पत कवि का करेज में ई मनमोहक प्राकृतिक छवि एह से हूक उठा रहल बा कि उनकर रानी स्वाती के बूँद हो गइल बाड़ी -
' आयल बाटे सावन के महीना मोरे भइया,
रहि रहि के उठे बदरा हो घनघोर।
उड़ेला पपीहा आपन गितिया सुनावत,
चलेले बयारि जियरा के लहरावत।
जोन्हरी के पात हिले, मड़ुआ के चोटी,
रहि रहि खहराली उखिया जे मोटि मोटि।
उड़ेलें बकुलवा जइसे बेइली के गजरा,
बदरा के टुकड़ी नभवा में करे झगड़ा।
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कहे बिसराम दुनिया करति बाय आराम,
नाचत बाटे बनवाँ में खूब मोर।
राम मोरी रानी भइली स्वाती के पानी,
मोरा कयकेला करेजवा के कोर।'

एह तरह से हर मौसम से कवि विश्राम अपना बिरह-बेदना के जोड़ के अपना प्रियतमा का बिछोह के दरद अभिव्यक्ति देले बा।

कवि के गाँव सियारामपुर तमसा नदी के किनारे बा। एही तमसा नदी का किनारे अपना क्रौंच के बिछोह में क्रौंची चिरई आपन चोंच पटक-पटक के प्रान तेयाग देले रहे,जवना के देख के रिसि बाल्मीकि का भीतर के शोक श्लोक बनके फूट पड़ल रहे। ओही तमसा नदी से कवि याचना करत बा कि अब एह जीवन में त मृत्यु के प्राप्त हमरा प्रियतमा से मिलन ना हो सके, बाकिर हे नदी माई, हमरा मुअला के बाद हमरा हड्डियन के उहँवें बहा के ले जइहऽ जहँवा हमरा प्यारी का हड्डी के चूर पड़ल होखे -
' मोरी हडियन के माता उहवाँ ले जइहऽ।
जहाँ उनका हडियन के रहे चूर।'

कवि के ई इच्छा हर पाठक- श्रोता के हृदय के झकझोर के रख देता। ठाकुर विश्राम सिंह के एह शोक गीतन के आजुओ कई गो गायक लोग का कंठ से सुने के मिलेला। एने आके जगदीश प्रसाद बरनवाल 'कुंद' 'बिरही बिसराम' नाम से ठाकुर विश्राम सिंह का शोक गीतन के एगो संग्रह प्रखर प्रकाशन, नवीन शहादरा, दिल्ली से प्रकाशित करवले बाड़न। जवना के अध्ययन के उपरांत उनका शोक गीतन के सम्यक् मूल्यांकन हो सकेला।
सम्प्रति:


डॉ. जयकान्त सिंह 'जय'
प्रताप भवन, महाराणा प्रताप नगर,
मार्ग सं- 1(सी), भिखनपुरा,
मुजफ्फरपुर (बिहार)
पिन कोड - 842001

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