डॉ. कमलेश राय के लोकप्रिय काव्य-संग्रह 'अइसन आज कबीर कहाँ': एगो अध्ययन - विष्णुदेव तिवारी
आज ओइसन कबीर नइखन जइसन कबीर कबो रहले। ई अचरज के बात नइखे, कवनो अनहोनी के बात नइखे काहें कि सृष्टि में दोहराव ना होला। दोहराव ध्वंस में होला, सृजन में ना। ओइसन कबीर आज नइखन, माने आज के लोगन में केहू कबीर अस नइखे। जब दरसन, चिंतन आ करतब पच्छिम होखे, तब पूरब के कबीर कइसे होखल जा सकत बा?
सब आपन-आपन लेके बइठल बा, आपन-आपन रो रहल बा। एह रोवनिया लोगन में कबीर के खोजल बेकार बा। कबीरो अपने खातिर रोवत रहले बाकिर उनकर आपन सब उहे रहे, जेकरा के दुनिया दोसर कहेले-
अपना खातिर लोर बहुत बा
औरन खातिर पीर कहाँ
जग के दुख कारन जे रोवे
अइसन आज कबीर कहाँ
'अइसन आज कबीर कहाँ' के गीतकार डॉ. कमलेश राय के अनुभूतियन में संवेदना के जवन चटक रंग घोराइल बा आ उनका गीतन में उगल बा, ऊ चहुँ ओर क्षरण से जामल वेदनउग चिंते के टभकन ह-
व्यथित मन जब तिलमिलाये
आह हिय में ना समाये
बेकली के पार जाके
वेदना जब तमतमाये
तू अनासे उतरि आवेलू
कवित पुनीत बन के
सुरति के संगीत बन के।
बाकिर 'अइसन आज कबीर कहाँ' चिंता-काव्य ना ह। चिंता बा, उजबुजहट बा, छटपटइनी बा। एकर कारन बा। कारन के निवारनो बा आ निवारन के उपाइयो बा। ई उपाय कवि के आपन ह।
पहिले देखल जाउ कि कवि के चिंता का बा? आदमी चाहे ओकरा से इतर पर आइल भा बोलावल गइल संकटन से कवि चिंतित बा। कवि के चिंता युग के चिंता ह। कवि चिंतित बा आ गहिर वेदना में बा। चिंता छोटहन नइखे। सृष्टि के नाश के चिंता बा-
अइसन माल गोदाम बनी त' जिनगी कहाँ बची
कइसे पेड़ बची, पेड़न क' फुनगी कहाँ बची
* * * ***** * * *
बिना डाँड़ आ बिना मेड़ के सबके मिलल अजादी
सुरसा के मुँह के जइसन अब दिन-दिन बढ़त अबादी
अइसे चली त' कुुछ दिन में ई धरती कहाँ बची
कमलेश राय के गीतन के ई खूबी बा कि ऊ शब्दन से जथारथ के विश्लेषित करेलन ऋषि के जइसन साक्षी होके आ शब्दन के बीचे जवन खूँख बाँच जाला ओमे बिथा भर देलन कलाकार अस भावुक होके। शब्दन से पनकल, शब्दन के पार जाके कविता ओहिजे दोल्हेले जहाँ कवि के बिथा टँगाइल रहे ले।
आज के विराट संकटन में 'बढ़त आबादी' आ 'घटत फेंड़-रुख' दुइए गो त मुख्य बा। हालाँकि 'पृथ्वी सम्मेलन' आ ओकरा आगे-पीछे के तमाम सम्मेलनन से एह संकटन के समाधान के कोशिश जरूर कइल गइल बाकिर हाथे लागल सोना। सब देखाऊ साहु के डाल होके रह गइल। कमलेश के शब्दन में-
धानी चूनर छीनि धरती क'
देके उज्जर सारी
सगरी दिया बुता के अब त'
होता दिया-दियारी
अइसन कुमति समाइल, साधो
सबकर मती मराइल, साधो
सोगहग नाकि बेंचि के देख'
नथुनी नया किनाइल, साधो
'सोगहग नाकि बेंचि के देख' नथुनी नया किनाइल, साधो' के मारक व्यंग्य एह संदर्भ में बहुत कुछ कह देत बा आ ऊपर से कबीरी संबोधन 'साधो!' मारतो बा त गुदुरा-गुदुरा के।
कहे खातिर विकास बाकिर होखे खातिर सत्यानाश। खुद सरकारे 'फोर लेन' आ 'अथोर लेन' के नेवरती सदियन पुरान फेंड़न के मुआ घालत बाड़ी स आ कनइला के विज्ञापन करत लोक कल्याणकारी होखे के बन्हना बान्ह लेत बाड़ी स।
भारतीय ऋषि पर्यावरण के नुकसान करे वाला दुष्टन के दुर्गति के विधान कइले रहले। कथा ह कि बालि दुंदुभि दइत के मार के ओकरा लाश के मतंग मुनि के आश्रम में फेंक दिहलस। अइसन करम कके ऊ कतने बिरिछ-लता के जिनगी खतम कर देलस। मतंग मुनि खातिर गाँछ-बिरिछ अपना लइका से कम ना रहले। उनका बड़ा दुख बरल। ऊ खिसिन्ह बालि के सराप दे दिहले कि उनका आश्रम के भिरी आवते ओकर महमंड फाट जाई। मुनिवर बालि के चेलो-चपाटी लोग के आज्ञा दिहले कि उहो लोग बिना देरी कइले ऋष्यमूक पहाड़ छोड़ देस लोग ना त उहनियो लोग ना बाँची-
वने'स्मिन मामके नित्यं पुत्रवत् परिरक्षते
पत्रांकुर विनाशाय फलमूलाभवाय च।।
(श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण: किष्किंधाकाण्ड/11/57)
आज के विश्व के सरकारन के पाले का अइसन दंड विधान बा?...आ जवन बा, का ओकर मान-जान दुरुस्ती के साथ हो रहल बा?
भारत के लोगन द्वारा अपना स्वतंत्रता समर में अपनावल गइल साधनन आ विचारन के पवित्रता के बड़ग्गी सब कइले बा। हमनी के ओह स्वतंत्रता के आज कवन गति क रहल बानीं जा, इहो जग जाहिर बा। कुछ लोग खउरा बो रहल बा आ उनकरे गोड़े दउरत कुछ दोसरो लोग अपने लोगन आ अपने संसाधनन के जम्हु घरे भेंजत मगन हो रहल बा कि अब दुसरकी आजादी भेंटाइले बोलत बा।
एह स्थिति में एगो कवि का करी? अउरी कुछुओ करे, पहिले त कविता करी। कमलेशो राय इहे करत बाड़न। बाकिर रीति निभावे खातिर ना, प्रीति निभावे खातिर काहें कि इनका भारत के समग्रता से प्रेम बा-
ना ऊँच-नीच, ना भेद-भाव
ना जाति-धरम क' बँटवारा
सँगही दीवारी ईद मने
अइसन होखे भाईचारा
मंदिर में तू आरती लिख'
मस्जिद में होत अजान लिख'
'गीतांजलि के रवीन्द्रनाथ स्वतंत्रता के जवना सरग के सपना देखले रहले, ऊ सचहूँ सपने रह गइल, शायद हमनी के पता नइखे। शायद फ़ैज के पता रहे- 'वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं।' ई कमलेशो राय के पता बा।
कवि के चिंता के आलंबन आ उद्दीपन अलोपित आ डिठार दूनों बा। प्रकृति आ ओकरा कवच-कुंडल पर्यावरण के हानि, राजनीति के गोड़ से लेके भुभुन तक असरन भार-लफुआई, गर कटाई, पुलिस के अत्याचार, कोट-कचहरी से न्याय मिले में हजार झंझट, किसानन के दुर्दशा-फजीहत, मजूरन के मुँहे जाब, पेटे पत्थर, बाजार के घरे-घरे जरत टेम्ह के बीचे रिश्तन के गरिमा आ सुसुमपन में धुअँहट, बेरोजगारी के मार आ महतारी-बाप के सपनन के अंत, घर से बाहर तक सगरो अवसरवाद-घात- ई कई डिठार कारक बाड़े। ई असरन करे वाला कारक संख्या में कतनो होखसु, एकही अदीठ कारक 'द्वेष' के तिरछोल लरछा हवन। जहाँ कतो अनाचार हो रहल बा, ओकर कारन ई द्वेषे बा, जे आदमी के चेतना प मोरचा अस सट गइल बा आ कतनो खँखोरल जाता, छुटत नइखे।
द्वेषी अपना के सबसे बड़ मनवावे के अधातम में हर कु-करम करे के तइयार रहेला। सत्ता, शक्ति आ सुनराई के अकेले हबेखे के ओकर पिचास पिआस कबो ना बुझाइ। फ्रांस के शासक लूई चउदहवाँ कहत रहे- 'हम्हीं राज्य हईं।' अइसन भाव दोसरा के संगे-संगे अपनो के खा जाला।
द्वेष के अँकवार धृतराष्ट्र के अँकवार ह। ए में जाके केहू ना बाँचे। विकास के होड़ आ सभ्य होखे के लँगट दउर आदमी के खून पीए वाला दइँतर बना देलस। एकरा के चाहे जवना शब्दावली में कहल जाउ- उपभोक्तावादी अपसंस्कृति, आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकृत विश्व बाजार व्यवस्था- सब शोषने के ना लउके वाला किरदार के डेरावन मुखारी ह। एकरा से कतरिआइ के चैन से रहल जा सकेला, ई सोचलो बेकार बा त हर ओर से ई त करहीं परी कि प्रेम बाँच जाउ। प्रेम अभयंकर, दिव्यंकर ह। फेर त ऊ अपने अमरलता अस सगरो पसर जाई।
गीतकार कमलेश राय के दर्शन साफ बा- प्रेम होखे के चाहीं आ लउकहूँ के चाहीं। ई कवनो नया बात नइखे। सत्य नया ना होखे, ओकर अभिव्यक्ति नया होखेले। हमनी के सोचे के होई कि कइसे सबके पेट भरी, कइसे आपसी भेद के पोरसा-पोरसा भर उठल देवाल अरराइ के गिरिहें स, कइसे सबके घरे चान उतरी। द्वेष से त ई ना होई। प्रेमे से होई-
जबले सबकर दिया जरी ना
अन्हियारा जबले निझरी ना
असरा के उजियारे जबले
हर चेहरा-चेहरा सँवरी ना
सोनपरी क' कथा कहानी
कइसे भला जिया भरमाई!
कुछ दशक पहिले हिन्दी के एगो कवि प्रेम-पत्र बँचावे के बात कहले रहले। बात इहे रहे। कई स बरिस पहिले महर्षि शांडिल्य एगो बात कहले रहले- 'द्वेषप्रतिपक्षभावाद्रसशब्दाच्च राग:।' बात इहे रहे। प्रेम होई त कथा-कहानियन से भरमावे के बात ना होई। शोषण के नया-नया रूपन के खोज-अनुसंधान ना होई। रागपूर्ण भूँइ में कबो प्रतिपक्षी भाव उग सकी का?
मए स्थायी आ संचारी भावन के जरि में दुइए गो भाव बा- द्वेष आ प्रीति आ एके मानवेतरो जानत बाड़न- 'हित अनहित पसु पच्छिन चीन्हा।'
प्रथम महासमर के अँगरेज सैनिक सिगफ्रीड ससून अपना बाँचल जिनगी में प्रेम के पक्ष में आ युद्ध के विरुद्ध प्रचार करत गइले। उनकर एगो बहुत सुंदर कविता ह, छोटहन कविता- 'एवरीवन सैंग'। एह कविता में ऊ जुद्ध के धाह से उबरल सैनिकन के मन के भाव के बड़ा हृदयग्राही चित्र घिंचले बाड़े।
एगो नीमन गीत में कथ्य, तथ्य, भाव, बिंब, नाद अइसे होलन जइसे देह में हड्डी, माँस, रकत, साँस आ प्राण। कथ्य आ तथ्य भाव प्रकाशक ह बाकिर गीत के महातम बिंब आ नाद से जुटेला। बिंब आ नाद गीत के साँस-प्राण ह। बिंब के प्रगट करे खातिर अभिव्यंजन-समर्थ भाषा के दरकार होला। नाद ध्वनि मात्र से अर्थ के प्रतीति करा देला-
कंचन कलस ढरल अंबर से
रंग पीत पसरल
फूल पात सब हँसे चहूँ दिसि
सगुन गीत उभरल
भोर भइल धरती ओढ़ेले
हेम बरन चुनरी।
ऊपर आइल पंक्तियन के नजर आवते प्रसाद के 'हेम कुंभ ले उषा सवेरे/भरती ढुलकाती सुख मेरे' आ जार्ज हरबट के 'Sweet day so cool so calm so bright/The bridal of the earth and sky' आदि पंक्ति मन में घोराए लागत बाड़ी स आ जिनगी के काँच कुँवार संवेदना फफा जात बाड़ी स- पिअरी पहिरले, सजल-धजल, नायिका माँड़ो में विराज चुकल बाड़ी। सगुन गीत गावल जा रहल बा।
महान गीत अमनिया आ वैयक्तिक होला। यद्यपि आज-काल्ह के विद्वानन के कुछ खास जरोह अइसन नइखे मानत। श्रम गीत होखे चाहे संस्कार गीत, परब-त्योहार के गीत होखे चाहे कलागीत- सब में गीतकार के अापने संवेदना उगेले। गीत सृजन सामूहिक प्रयोग ना ह। यदि कुछ समूह अइसन कइलहूँ होइहें त ऊ अभिव्यक्ति ना, देखावा होई। सहज ना, असहज के दावा होई।
महान गीतन के एगो अउरी गुन होला- समग्रता में रसबोध। एकर माने ई कि एगो गीत के अलग-अलग झोंझो में उहे भाव-बोध पेहम रही, जवन गीत के मए घवद में बा। समुंदर होखे, नदी होखे भा टंकी के पानी- ओकरा एगो ठोप में उहे मिठाई भा तिताई होई, जवन ओकरा मए पानी में बा। रउआ कहीं से पीहीं, कतहूँ पीहीं, ओकर रासायनिक सूत्र एकदम ना बदली- H2O, H2O ही रही-
राख' सहेजि त एगो हम
तोर त' कई हजार हईं।
हर गीत के हृदय होला। गीत का महाकाव्य तक के हृदय होला। ऊ एक डाँड़ि, दू डाँड़ि भा कुछ बेसियो डाँड़ि के हो सकत बा, जइसे- 'श्रीमद्भागवत' के हृदय हई श्लोक ह-
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।
'रामचरितमानस' के हई चउपाई-
एही महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सो दसरथ अजिर बिहारी।।
अइसहीं, Julius Caesar के हृदय पाँति ह- 'Et tu, Brute?
'यशोधरा' के 'गोपा बिना गौतम भी ग्राह्य नहीं मुझको!' आ 'सरोज स्मृति' के-
दु:ख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही!
हृदय-पाँति हई स।
अइसहीं, 'अइसन आज कबीर कहाँ' के कुछ गीतन के हृदयन के एह पंक्तियन में धड़कत सुनल जा सकत बा-
गीत हृदय
दुनिया कहाँ देख पवलीं हम मन में रहल भरम
जगला क'
जागल भला कहाँ
रहलीं हम
गोदान पर हम का लिखीं सल्तनत के शान पर
हम का लिखीं?
रोज दूनों कुल सँवारे राम के सीया बहू
'अइसन आज कबीर कहाँ' आशा आ जिनगी के सुन्नर बनावे वाली संपत्तियन के काव्य ह। नीक से जीए के चाह के काव्य ह। आशा आ जीए के चाह जिनगी के अमोल रतन हवन। इन्हिके बले पहिल नेपोलियन अपना सैनिकन से कड़बच नधले आल्प्स परबत टपवा देले रहे।
समस्या सब सझुरइहें, संकट कटिहें। जवन बाँच गइल बा ओकरा के त बचावल जाउ। एगो से दूगो, दूगो से चार गो- ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन अस- प्यार के सहकार से- दुनिया फेर बाँच जाई आ सुघर गीत गवाए लगिहें स-
हे तोता, गँउए में कुछ
हरियर सीवान बाँचल बा
देख' एजहें कुछ धरती
कुछ आसमान बाँचल बा।
आज से सइ बरिस पहिले, कबीरे के कुल के रवीन्द्रनाथ अपना बंग गीतन के जवरे विश्व साहित्य में दमकत नखत बन उगल रहले। आज डॉ. कमलेश राय अपना भोजपुरी गीतन के दीपित नखत लेके साहित्य नभ छवले जा रहल बाड़े। इनकरो कुल कबीरे के कुल ह।
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