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गीत: संगीत सुभाष

  गीत: संगीत सुभाष संगीत सुभाष कबो लछिमी के रूप कबो शारदा सरूप कबो सादगी की मूरत भवानी लागेली मोर धनिया त मोहे महारानी लागेली। ना तिसना गहना-गुरिया के ना धउजन बा पौडर के घरनी सुघर नीक से राखसु अरजन खरचन घर भर के थोरिके में गुजरान बस एही में जहान बिना रूपा बिना सोना सुखमानी लागेली। रेशम के जेवरि जस राखसि नेहबंध में नाता के जीवन के अति कठिन तपिश में बा अइसन सुखदाता के ज'ले करसु ना नहान त'ले होत ना बिहान जोगसु घरवा के पानी त्रिमुहानी लागेली। तुलसी चउरा दियना बारसु देवता-पितर मनावेली मांगसु सुख परिवार पूत के मन आभार जनावेली भले रहेली उपास ना डिगेला बिसवास हमरा बचवन के माथा पर के छान्ही लागेली। सहस बाँहि से सहस काम के छन भर में निपटा देली सहस आँखि से घर बाहर के देखेली जयजा लेली नींनि आवे ना पास ना बइठहीं के साँस ना ओराए वाली अबूझ कहानी लागेली। - संगीत सुभाष (संगीत सुभाष जी के फेसबुक पेज से साभार)

बटोहिया : एक अध्ययन (भाग - 3) - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

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बटोहिया : एक अध्ययन(भाग - ३) - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय' प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय' रघुवीर नारायण जब 'बटोहिया' की रचना अपनी मातृभाषा भोजपुरी में कर रहे थे तब वह काल द्विवेदी युग के मध्य का था। काव्य की भाषा ब्रजभाषा थी और राज-काज की भाषा फारसी। खड़ी बोली में गद्य लिखना जितना सहज लगता था उतना पद्य लिखने के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती थी। नागरी लिपि के लिए संघर्ष हो रहा था। हिन्दुस्तानी पहले अरबी - फारसी में लिखी जाती थी। सन् १८८१ ई. के बाद वह कैथी में भी लिखी जाने लगी। कचहरी की भाषा उर्दू बन गई थी। सन् १९०० ई. में "सरस्वती" पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और तीसरे वर्ष से ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उसका संपादन करने लगे थे और बाबू श्यामसुंदर दास उनके संपादन कार्य में सहयोग कर रहे थे। सन् १९०३ से सन् १९२० तक द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य लेखन को निर्देशित कर रहे। फिर भी उनके काल को इतिवृत्तात्मक युग ही माना जाता है। रघुवीर नारायण सन् १९०८ ई. में ' बटोहिया ' लिखने के बाद सन् १९१० ई. के पूर्व अपने 'रम्भा' खंडकाव्य की रचना खड़ी बोली म...

सम्मान (भोजपुरी व्यंग्य): संगीत सुभाष

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सम्मान (भोजपुरी व्यंग्य): संगीत सुभाष संगीत सुभाष आयोजक आ कवि घुरनाठ 'घुसपैठी' के बतकही लाउडस्पीकर जइसन ऊँच आवाज में होत रहे। बतकही का होत रहे, दुनू जने एक दूसरा की महतारी बहिन के एक तन के नव तन करत रहलें। एतना से काम ना चलल त फैटाफैटी होखे लागल। लड़ाई साँढ़ भँइसा के हो गइल रहे। देखवइया मजा लेत रहलें। केहू आयोजक के समर्थक त केहू कवि घुरनाठ 'घुसपैठी' के समर्थक हो गइल। मंच पर दुनू जने के ई रौद्र रूप आ मारामारी देखि के मुख्य अतिथि कुछ लोग की सहायता से ढकेलि के कमरा में ले गइलें। कहलें - 'तहन लोग त साहित्यिक संस्था के सब इज्जत मटियामेट क दिहलऽ। आखिर, काहे खातिर ई तमाशा होत बा?' कवि घुरनाठ 'घुसपैठी' कहलें -'साहित्यिक संस्था के इज्जत जाउ भाँड़ में। अपनी बात पर जे कायम ना रहेला ओकरा साथे हम इहे बेवहार करिले।' 'आखिर भइल का बा, घुसपैठी जी?' 'भइल त बहुत कुछ बा। ई हमसे अढ़ाई हजार रुपिया ई कहि के लिहलें कि हमरा आयोजन में राउर सम्मान कइल जाई। ए सम्मान में लगभग एगारह सइ रुपिया के शाल, स्मृति चिन्ह आ माला रउरा के दिआई। ई सब मिलि के पनरह सइ हो ...

भोजपुरिया: संगीत सुभाष

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भोजपुरिया: संगीत सुभाष संगीत सुभाष हीत नात जानल अनजानल रिश्तेदार भुलाई ना। नाना नानी बाबू काका दोस्त इयार भुलाईं ना। ई सुभाव भोजपुरिए के ह जुगवेला दुक्खो सहि के, लिट्टी चोखा सतुआ भूजा महिया माँड़ भुलाई ना। जाई शहरे फ्लैट किनाई छान्ही टाट भुलाई ना। पलँगे सूती गद्दा ऊपर गुदरी खाट भुलाई ना। ई सुभाव भोजपुरिए के ह जुगवेला हरदम जुगई, स्वीमिंग पूल नहाई भलहीं नदिया घाट भुलाई ना। जीन्स पैंट पर कैप पहिनि ली गमछा पाग भुलाई ना। पोएम अंगरेजी के रटि ली पुरुबी राग भुलाई ना। ई सुभाव भोजपुरिए के ह कहीं रहे थाती जुगवे, फिल्मी धुन पर नाची भलहीं चइता फाग भुलाई ना। बरखा में दउरत दहवावत कागज-नाव भुलाई ना। आम टिकोरा बीनल खाइल पीपर छाँव भुलाई ना। ई सुभाव भोजपुरिए के ह कुछ बचपना बचा राखे, चान प महल बना ली तबहूँ गाँव गिराँव भुलाई ना। छली लोग के झट पहिचाने उनके नाम भुलाई ना। टूटत तन दहकत बुखार से तबहूँ काम भुलाई ना। ई सुभाव भोजपुरिए के ह अदिमी पहिचाने झट से, बा चरित्र के पोढ़ कि बाटे नीयत खाम भुलाई ना। के देखल आसन बइठावल ई सनमान भुलाई ना। के देखल त मुँह बिजुकावल ई अपमान भुलाई ना। ई सुभाव भोजपुरिए के ह रूसे माने ...

बिन बरखा बजर परे कजरी (भोजपुरी गीत): संगीत सुभाष

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  बिन बरखा बजर परे कजरी (भोजपुरी गीत): संगीत सुभाष संगीत सुभाष बिन बरखा बजर परे कजरी। अमिया डाली रेशम रसरी। जेठ मेंठ बनि हेठ लुकइलें अगिनीकुंड असाढ़ कहइलें एको बूँन परल ना पानी लउकल ना नभ में बदरी। सावन साजि मेघ ना लइलें मुअल आस सब धइले धइले का बुलवाईं साजन के घर का लिखि भेजीं शुभ पतरी। ना दादुर के बोल सुनाइल ना सरवर में कमल फुलाइल कहीं दिखे ना तनिक हरियरी टूटल सपन सुघर सगरी। तड़पे मलछि पियासल धरती लागे कोखि मांगि सब परती का दे के संतान बझइहें खाली बा डेहर बखरी। -संगीत सुभाष (संगीत सुभाष जी के फेसबुक पेज से साभार)

बटोहिया : एक अध्ययन (भाग - 2) - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

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  बटोहिया : एक अध्ययन - प्रो. जयकान्त सिंह ' जय प्रो. जयकान्त सिंह 'जय' पाण्डेय जगन्नाथ प्रसाद सिंह के अनुसार रघुवीर नारायण ने 'बटोहिया' की रचना सन् १९०८ ई. में ही की थी। परन्तु, उन्होंने इसे २७ अगस्त, १९११ ई. को गणेश चतुर्थी के दिन छपरा के सार्वजनिक समारोह में पहली बार गाया था। इसे आगे और प्रसिद्धि तब मिली, जब २२ मार्च, १९१२ ई. को मोतिहारी, पूर्वी चम्पारण में आयोजित 'बिहार स्टूडेंट कांफ्रेंस' में गोपीकृष्ण सिंह ने इस अपना स्वर देके पूरे मनोयोग से गाया। उस कांफ्रेंस में इसे कई बार सुना गया। इसके बाद यह बिहार और बिहार के पड़ोस के राज्यों में होने वाले कांग्रेस के आयोजनों तथा अन्य क्रान्तिकारी दलों के समारोहों में गाया जाने वाला राष्टीय जागरण गान हो गया। सन् १९११ - १२ ई. में 'बटोहिया' को मिली लोकप्रियता के आधार पर अनेक विद्वानों ने इसी सन् ईस्वी को इसका रचनाकाल काल माना है। परन्तु, यदि इसके प्रकाशन काल से इसकी कालगत जन्मपत्री बने तो इसका प्रथम प्रकाशन काल सन् १९१६ ई. है। सन् १९१६ ई. में ही बटोहिया का प्रकाशन एक 'लक्ष्मी' नाम की पत्रिका ...

बटोहिया : एक अध्ययन (भाग - 1) - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय'

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भोजपुरी राष्ट्रीय गीत ' बटोहिया ' अमर काव्यकार बाबू रघुवीर नारायण - प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय' प्रो. (डॉ.) जयकान्त सिंह 'जय' बटोहिया : एक अध्ययन 'बटोहिया' शाश्वत सनातन सांस्कृतिक राष्ट्र भारतवर्ष का स्वबोधी राष्ट्रीय गौरव गान है जो लोक-संस्कृति और लोक-संगीत की पूर्वी भाषा भोजपुरी के पूर्वी लोकधुन में सृजित है। यह कारयित्री प्रतिभा से सुसम्पन्न युगचेता कवि रघुवीर नारायण की अतुलनीय काव्यकृति है जो अपने रचना - काल से ही सामान्य जनों से लेकर विशिष्ट काव्य-रसिकों तक को प्रिय है। भोजपुरी का यह राष्ट्रीय गीत मूलतः रघुवीर नारायण के राष्ट्रानुराग की भावात्मक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समकालीन साहित्यकार पाण्डेय जगन्नाथ प्रसाद सिंह के अनुसार रघुवीर नारायण ने अपने इस राष्ट्रीय गौरव गान की रचना सन् १९०८ ई. की थी और वह भी अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीसीतारामशरण भगवान प्रसाद अर्थात् रूपकला जी की प्रेरणा से। रघुवीर नारायण सन् १९०६ ई. में अपने गुरु रूपकला जी से मिलने और आध्यात्मिक प्रेरणा से अयोध्या गए थे। उस समय तक उन्हें अंग्रेजी के सुख...